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स्थूलभद्र गुणमाला की एक प्रति केसरियामाथ जी का मन्दिर, जोधपुर में स्थित जान भण्डार में विद्यमान है। दुर्भाग्यवश यह हस्तलेख अधूरा है। इसमें न केवल प्रथम दो पत्र प्राप्त है, अन्तिम से पूर्ववर्ती तीन पत्र भी नष्ट हो चुके हैं। घाणेराव भण्डार की काव्य की एक पूर्ण प्रति की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कवि ने स्थूलभद्र गुणमाला की पूर्ति जयपुर नरेश जयसिंह के शासन काल में सम्वत् 1680 (1023 ई.) पौष तृतीया को जयपुर के उपनगर सांगानेर ( संग्राम मगर ) में की थी। इस प्रति से यह भी स्पष्ट है कि काव्य में सतरह अधिकार हैं और इसको समाप्ति व स्थूलभद्र के उपदेश से वेश्या के प्रतिबोध तथा नायक के गुणगान एवं स्वर्गारोहण से होती है? । खेद है, यह प्रति हमें अध्ययनार्थ प्राप्त नहीं हो सकी।
कथानक के नाम पर स्थूलभद्र गुणमाला में वर्णनों का जाल बिछा हया है । दो-तीन सर्गों में सौन्दर्य-चित्रण करना तथा पांच स्वतन्त्र सगों में विस्तत ऋत कर देना कवि की काव्य-शैली का उग्र प्रमाण है। भोग की अति की परिणति अनिवार्यतः भोग के त्याग में होती है, अपने इस सन्देश को कवि ने सरस कान्य के परिधान में प्रस्तुत किया है, किन्तु उसे अधिक आकर्षक बनाने के आवेश में वह काध्य में
नहीं रख सका । काव्य में वणित सभी उपकरणों सहित इसे 6-7 सर्गों में सफलता पूर्वक समाप्त किया जा सकता था। किन्तु सूरचन्द्र की काव्य-प्रतिमा तथा वर्णनात्मक अभिरुचि ने इसे 17 सों का बहद् आकार दे दिया है। किसी विषय से सम्बन्धित अपनी कल्पना का कोश जब तक नह रीता नहीं कर देता, कवि आगे बढ़ने का नाम नहीं लेता। यह सत्य है कि इन वर्णनों में कवि-प्रतिभा का भव्य उन्मेष हमा है. किन्तु उनके अतिशय के विस्तार ने काव्य चमत्कारको नष्ट कर दिया है। स्थलभद्र गणमाला का महत्व इसके वर्णनों तक सीमित है, किन्तु ये इसके लिए घातक भी बने है। कवि की विस्तार भावना ने उसकी कवित्व-शक्ति को दबा दिया है। सूरचन्द्र की काव्य-प्रतिभा प्रशंसनीय है, परन्तु उसने अधिकतर उसका अनावश्यक क्षय किया है। सारा काव्य सूक्ष्म वर्णनों से भरा हुआ है।
माघकाव्य का समस्यापूर्ति रूप मेघविजयगणि-कृत देवानन्द महाकाव्य सात सों की प्रौढ एवं अलंकृत कृति है । इसमें जैन धर्म के प्रसिद्ध प्रभावक, तपागच्छीय प्राचार्य विजयदेवसरि तथा उनके पट्टधर विजयप्रभसूरि के साधु-जीवन के कतिपय प्रसंगों को निबद्ध करने का उपक्रम किया गया है, किन्तु कषि का वास्तविक उद्देश्य चित्रकाव्य के द्वारा पाठक को चमत्कृत करते हुए अपने पाण्डित्य तथा रचना-कौशल की प्रतिष्ठा करना है। इसीलिये देषानन्द के तथाकथित इतिहास का कंकाल चित्रकाव्य की बाढ में इब गया है और यह मुख्यतः अलंकृति-प्रधान चमत्कारजनक काव्य बन गया है। इसकी रचना मारवाड के सादडी मगर में सम्बत् 1727 ( 1650 ई.) में विजयदशमो को पूर्ण हई थी. इसका उल्लेख काव्य की प्रान्त प्रशस्ति में किया गया है। इसकी एक प्रतिलिपि स्वयं ग्रन्थ कार ने ग्वालियर में की थी ।
1. संग्रामनगरे तस्मिन जैनप्रासाद सन्दरे ।
काशीवकाशते यत्र गंगव तिर्मला नदी ॥ 296 ।।
राज्ये श्रीजयसिंहस्य मानसिहस्पसन्सतः । 298 2. श्री स्थूलभद्रस्य गुणमालानामनि चरिते वेश्या-प्रतिबोधन-श्राविकीकरण-श्रीगुरुपादमलसमागत-श्रीस्थूलालिप्रशंसना' । स्थूलभद्रस्वगमन-गुणमाला-समर्थनवर्णनो नाम सप्तदशोधिकारः सम्पूर्णः । 3-देवानन्दमहाकाव्य, ग्रन्थप्रशस्ति 31