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संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार 3.
--मुनि गुलाबचन्द्र निर्मोही
जैन परम्परा में भी संस्कृत साहित्य का प्राचुर्य है। जैन आगमों तथा तत्सम ग्रन्थों की गाषा मूलतः प्राकृत, अर्धमागधी अथवा शौरसेनी रही है। आगमोत्तर साहित्य की अधिकांश
चीन रचनाएं भी प्राकृत में हुई है किन्तु जनरुचि को देखते हुए जैनाचार्यों ने संस्कृत को भी प्राकृत के समकक्ष प्रतिष्ठा प्रदान की। जिस समय वैदिक साहित्य और संस्कृति का व्यापक प्रभाव समाज में बढ़ने लगा तथा शास्त्रार्थ और वाद-विवाद के अनेक उप-क्रम होने लगे तब जैन आचार्यों ने भी संस्कृत को अधिक महत्व देना प्रारम्भ किया। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और हरिभद्र के ग्रन्थ इसके परिणाम कहे जा सकते हैं। यह समय ईसा की दूसरी शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक का है। आठवीं शताब्दी के पश्चात् जैन संस्कृत साहित्य की रचना के मूल में यहां की राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति ने अधिक काम किया है। जैन आचार्यों को संस्कृत साहित्य के निर्माण में जिन कारणों से प्रेरणा प्राप्त हुई, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
1. जैन धर्म के मौलिक तत्वों का प्रसार । 2. आप्त पुरुषों तथा धार्मिक महापुरुषों की गरिमा का बखान 3. प्रभावी राजा, मन्त्री या अनुयायियों का अनुरोध
उक्त कारणों के अतिरिक्त एक अन्य कारण यह भी हो सकता है कि अनेक जैन आचार्य मूलतः ब्राह्मण थे। अतः बचपन से ही संस्कृत उन्हें विरासत के रूप में प्राप्त हुई थी। उस विरासत से अपनी प्रतिभा को और अधिक विकसित करने के लिए साहित्य सर्जन का माध्यम उन्होंने संस्कृत को चुना। जैन साहित्य का प्रवाह ईसा की दूसरी शताब्दी से प्रारम्भ हुआ और चौदहवीं शताब्दी तक निरन्तर चलता रहा। पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के संस्कृत ग्रन्थों में रचना स्थल का उल्लेख प्राप्त नहीं होता। सतरहवीं और अठारवीं शताब्दी म संस्कृत में प्रचुर साहित्य लिखा गया। उन्नीसवीं शताब्दी में जैन विद्वानों द्वारा लिखित संस्कृत बहुत कम प्राप्त है । तेरापंथ का संस्कृत साहित्य मुख्यतः नौ भागों में विभक्त किया जा सकता है:
1. व्याकरण, 2. दर्शन और न्याय, 3. योग, 14. महाकाव्य (गद्य-पद्य) 5. खण्ड काव्य (गद्य-पद्य), 6. प्रकीर्णक काव्य, 7. संगीत काव्य, 8. स्तोत्र काव्य, 9. नीति काव्य ।
व्याकरणः
भिक्षु शब्दानुशासन की रचना राजस्थान के 'थली प्रदेश म वि. सं. 1980 से 1988 के बीच हुई। तेरापंथ के आठवें आचार्य श्री कालगणी का व्याकरण विषयक अध्ययन बहुत विशद था। मुनि चौथमल जी का अध्ययन अधिकांशतः कालूगणी के सानिध्य में सम्पन्न हा। उन्होंने आगम, साहित्य, न्याय, दर्शन, व्याकरण, कोश आदि विविध विषयों का गहन अध्ययन किया । व्याकरण उनका सर्वप्रिय विषय था । उन्होंने पाणिनीय, जैनेन्द्र, शाकटायन, हेमशब्दानुशासन, सारस्वत, सिद्धान्त चन्द्रिका, मुग्धबोध, सारकोमुदी आदि अनेक व्याकरण ग्रन्थों का गंभीर मनन किया। आचार्य श्री कालूगणी की भावना थी कि एक समयोपयोगी सरल और सुबोध संस्कृत व्याकरण तैयार हो ताकि संस्कृत के विद्यार्थियों के लिय सुविधा हो सके । क्योंकि उस समय उपलब्ध व्याकरणों में सारस्वत चन्द्रिका बहुत अधिक संक्षिप्त थी। सिद्धान्त-कौमुदी वार्तिक फक्किका आदि की अधिकता के कारण जटिल थी । हेमशब्दानुशासन की रचना-पद्धति कठिन थी। इस प्रकार एक भी ऐसा व्याकरण मन्थ उपलब्ध