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होता है कि डड्ढा के पंचसंग्रह में जहां प्राकृत गाथाओं का अनुवाद मात्र है वहां अमितिगति के पंचसंग्रह में अनावश्यक कथन भी पाया जाता है।
कवि डड्ढा अमृतचन्द्रसूरि के बाद क तथा अमितिगति के पूर्व के विद्वान हैं। अमितिगति में अपना पंचसंग्रह वि. सं. 1073 में बना कर समाप्त किया था इसलिए डड्ढा इसक पूर्व के विद्वान् है। विद्वानों ने इनका समय संवत् 1055 का माना है ।
7. आचार्य शुभचन्द्र-(प्रथम):-शभचन्द्र नाम के कितने ही विद्वान् हो गये हैं। आगे इन्हीं पृष्ठों में दो शुभचन्द्र का और वर्णन किया जावेगा। प्रस्तुत शुभचन्द्र ज्ञानार्णव के रचयिता हैं जिनके निवास स्थान, कुल जाति एवं वंश परम्परा के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती। शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव का राजस्थान में सर्वाधिक प्रचार रहा। एक एक भण्डार में इनकी 25-30 प्रतियां तक मिलती हैं। यही नहीं इस पर हिन्दी गद्य पद्य टीका भो राजस्थानी विद्वानों की है। इसलिये अधिक सम्भव यही है कि शुमचन्द्र राजस्थानी विद्वान् रहे हों अथवा इन्होंने राजस्थान को भी अपने विहार से एवं उपदेशों से पावन किया हो।
ज्ञानार्णव योगशास्त्र का प्रमुख ग्रन्थ है। इसमें 48 प्रकरण हैं जिनमें 12 भावना, पंच महाव्रत एवं ध्यानादि का सुन्दर विवेचन हुआ है। ज्ञानार्णव पूज्यापाद के समाधितन्त्र ए इष्टोपदेश से प्रभावित है। ग्रन्थ की भाषा सरल एवं प्रवाहमय है तथा वह सामान्य पाठक के भी अच्छी तरह समझ में आ सकती है।
8. ब्रह्मदेवः--ब्रह्मदेव राजस्थानी विद्वान् थे। प्राकृत, अपभ्रश एवं संस्कृत के वे घरन्धर पंडित थे। वे आश्रमपसन नामक नगर में निवास करते थे। आश्रमपतन का वर्तमान नाम केशोरायपाटन है। यह स्थान बन्दी से तीन मील दूर चम्बल नदी के किनारे पर अवस्थित है। यहीं पर मनिसूवत नाथ का विशाल एवं प्राचीन मन्दिर है जो अतीत में एक तीर्थ स्थल के रूप में प्रतिष्ठित था जहां प्रतिवर्ष हजारों यात्री दर्शनार्थ आते हैं। 13 वीं शताब्दी में होने वाले मुनि मदनकीर्ति ने अपनी शासन चतुस्त्रिंशिका में इस नगर का उल्लेख किया है। यही नहीं इस तीर्थ की निर्वाण काण्ड गाथा में भी "अस्सारम्भे पट्टणि मुणिसुव्वयजिणं च वंदामि" शब्दों में बन्दना की है।
ब्रह्मदव ने इसी नगर में वृहद्रव्यसंग्रह एवं परमात्मप्रकाश पर संस्कृत में टीका लिखी थी टोका बहुत ही विस्तृत एवं महत्वपूर्ण है। यह टीका सोमराज श्रेष्ठी के लिये लिखी गयी थी
और सबसे बड़ी विशेषता यह है कि स्वयं ग्रन्थ कार मुनि नेमिचन्द्र,टीकाकार ब्रह्मदेव एवं सोमराज श्रेष्ठी इस साहित्यिक यज्ञ में सम्मिलित थे। द्रव्यसंग्रह कृति में सोमराज श्रेष्ठि के दो प्रश्नों का उत्तर नामोल्लेख के साथ किया गया है इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि कृतिकार के समय वे मी उपस्थित थे।
__ द्रव्यसंग्रह कृति की प्राचीनतम पाण्डुलिपि सं. 1416 को जयम के ठोलियों के मंदिर में उपलब्ध होती है। द्रव्यसंग्रह एवं प्रवचनसार टीकाओं में अमतचन्द्र, रामतिड, अमितिगति. हडता और प्रभाचन्द्र आदि के ग्रन्थों के उद्धरण मिलते हैं जो 10वीं और 11 शताब्दी के विद्वान है। इसलिये ब्रह्मदेव का समय 11वीं शताब्दी का अंतिम चरण अथवा 12वीं शताब्दी का प्रथम चरण माना जा सकता है।
9. आ. जयसेनः-आचार्य अमृतचन्द्र के समान जयसेन ने भी समयसार, प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय इन तीनों पर संस्कृत टीका लिखी है और इन टीकाओं की भी समाज में लोकप्रियता रही है। जयसेन आचार्य बीरसेन के प्रशिष्य