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तेरहवां शिलालेख-शाहबाज़गढ़ी
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(-) प्रियो। एतये च अठये अयि ध्रम-दिपि निपि( स्त)। कितिपुत्र पपोत्र मे असु नवं विजयं म विजेत (f) वअ मजिषु। स्प (कस्पि ) यो विज(ये) (क्षं)ति च लहु-द (-) डत च
रोचेतु। तं च यो विज(यं) मञ(तु) 12. यो ध्रमविजयो। सो हिदलोकिको परलोकिको। सव चतिरति
भोतु य (धोम-रति। स हि हिदलोकिक परलोकिक। (राज्य) अभिषेक के आठ वर्ष बाद देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजाने कलिंग को जीता। डेढ़ लाख लोग (कैद कर) वहां से (बाहर) ले जाये गये। वहां एक लाख लोग मारे गये। उससे बहुत से वहां (बिमारी-महामारी से) मर
गये।
उसके बाद कलिंग देश प्राप्त होने पर अब देवों के प्रिय को तीव्र धर्मानुशीलन, धर्माभिमत और धर्मानुशासन (का भाव) हुआ। कलिंग-विजय का देवप्रिय को बड़ा अनुताप हुआ। अविजित देश को जीतने पर लोगों का वहां जो वध, मृत्यु या निष्कासन होता है वह देवों के प्रिय को अत्यन्त कष्टदायी है। देवप्रिय को इससे और भी अधिक दुःख हुआ कि वहां ब्राह्मण, श्रमण और अन्य सम्प्रदाय के लोग तथा गृहस्थ रहते हैं जिनमें अग्रणी लोगों की सेवा-सुश्रुषा, माता-पिता की सुश्रुषा, गुरुजनों की सुश्रुषा, मित्र, परिचित, सहायक जाति-सम्बन्धियों की, दास-सेवकों के प्रति समुचित व्यवहार तथा दृढ़ भक्ति पायी जाती है-उनका वहां विनाश, वध या प्रिय जनों से बरबस वियोग होता है। अथवा जो स्वयं सुरक्षित रहते हैं पर स्नेही मित्र आदि के भिन्न, परिचित, सहायक, सम्बन्धी विपदा में फंस जाते हैं तो वहां उन्हें भी वही पीड़ा होती है। इस विपदा के प्रतिभागी सब लोग होते हैं यह देवों के प्रिय का दृढ़ मत है। ऐसा कोई भी देश नहीं जहां कोई न कोई धर्म-संप्रदाय न हो। इसलिए कलिंग में जो लोग मारे गये, मर गये या वहां से निष्कासित किये (हटा दिये) गये उसका सौवां या हजारवां भाग भी आज देवप्रिय को भारी लग लगता है। अब जो कोई अपकार करता है, क्षमा के योग्य है तो देवों का प्रिय उसे क्षमा कर
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