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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
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अर्थ - अथवा सतका नाश हो जायगा यह पक्ष भी सर्वथा वाधित है। क्योंकि द्रव्य कथञ्चित् नित्य है यह बात विशेष जानकारोंको प्रत्यक्ष रूपसे प्रतीत है ।
भावार्थ-यदि द्रव्य कथञ्चित् नित्य न होवे तो प्रत्यभिज्ञान ही नहीं हो सक्ता । जिम पुरुषको पहले कभी देखा हो, फिर दुवारा भी उसे देखा जाय तो ऐसी बुद्धि पैदा होती है कि " यह वही पुरुष है जिसे कि हम पहले देख चुके हैं।" यदि उस पुरुषमें कथञ्चित् नित्यता न होवे तो " यह वही पुरुष है " ऐसी स्थिर बुद्धि भी नहीं हो सक्ती । और ऐसी धारणारूप बुद्धि विद्वानोंको स्वयं प्रतीत होती है । इसलिये सर्वथा वस्तुका नाश
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मानना भी
सर्वथा अनुचित है ।
सारांश-----
तस्मादने कदूषणदूषितपक्षाननिच्छता पुंसा । अनवद्यमुक्तलक्षणमिह तत्त्वं चानुमन्तव्यम् ॥ १४ ॥
अर्थ - इसलिये अनेक दूपणोंसे दूषित पक्षोंको जो पुरुष नहीं चाहता है उसे योग्य है कि वह ऊपर कहे हुए लक्षणवाली निर्दोष वस्तुको स्वीकार करे । अर्थात् सत् स्वरूप, स्वतः सिद्ध, अनादि निधन, स्वसहाय और निर्विकल्प स्वरूप ही वस्तुको समझे ।
सत्ता विचार-
किञ्चैव भूतापि च सत्ता न स्यान्निरंकुशा किन्तु |
सप्रतिपक्षा भवति हि स्वप्रतिपक्षेण नेतरेणेह ॥ १५ ॥
अर्थ - जिस सत्ताको वस्तुका लक्षण बतलाया है वह सत्ता भी स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है । किन्तु अपने प्रतिपक्ष ( विरोधी ) के कारण प्रतिपक्षी भावको लिये हुए है । सत्ताका जो प्रतिपक्ष है उसीके साथ सत्ता की प्रतिपक्षता है दूसरे किसी के साथ नहीं ।
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भावार्थ - नैयायिक सिद्धान्त सत्ताको सर्वथा स्वतन्त्र पदार्थ मानता है । उसके मतवेअनुसार सत्ता यद्यपि वस्तुमें रहती है परन्तु वह वस्तुसे सर्वश्रा जुदी है, और वह नित्य है, व्यापक है, एक है । जैन सिद्धान्त इसके सर्वथा प्रतिकूल है । वह सत्ताको वस्तुसे अभिन्न मानता है, स्वतन्त्र पदार्थरूप सत्ताको नहीं मानता । यदि नैयायिक मतके अनुसार सत्ताको स्वतन्त्र पदार्थ माना जावे तो वस्तु अभावरूप ठहरेगी। यदि उसको नित्य माना जावे तो उसके साथ समवाय सम्बन्ध ( नित्य सम्बन्धका नाम समवाय है ) से रहनेवाली वस्तुका कभी भी नाश नहीं होना चाहिये । यदि उस सत्ताको व्यापक तथा एक माना जावे तो वह मध्यवर्ती अन्य पदार्थों में भी रह जायगी । दृष्टान्तके लिये गोत्व सत्ताको ले लीजिये 'जैसे- नैयायिक मतके अनुसार कलकत्तेवाली गौमैं जो गोत्वधर्म है वही बम्बईवाली गौमें भी है।
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