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सुबोधिनी टीका।
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भी दोनों ज्ञान परोक्ष हैं तथा इन्द्रिय और मनकी सहायतासे उत्पन्न होनेके कारण भी मतिश्रुत परोक्ष हैं फिर ग्रन्थकार स्वात्मानुभूति कालमें निरपेक्ष ज्ञानके समान उन्हें प्रत्यक्ष कैसे बतलाते हैं ?
उत्तरसत्यं वस्तुविचारः स्यादतिशयवर्जितोऽविसंवादात् । साधारणरूपतया भवनि परोक्ष तथा प्रतिज्ञायाः ॥७०९॥ इह सम्यग्दृष्टेः किल मिथ्यात्वोदयविनाशजा शक्तिः।
काचिदनिर्वचनीया स्वात्मप्रत्यक्षमेतदस्ति यया ।। ७१० ॥
अर्थ-ठीक है, परन्तु वस्तुका विचार अतिशय रहित होता है, उसमें कोई विवाद नहीं रहता। यद्यपि यह बात ठीक है और ऐसी ही सूत्रकारकी प्रतिज्ञा है कि साधारणरूपसे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान परोक्ष हैं, परन्तु सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व कर्मोदयके नाश होनेसे कोई ऐसी अनिर्वचनीय शक्ति प्रकट होजाती है कि जिसके द्वारा नियमसे स्वात्म प्रत्यक्ष होने लगता है । भावार्थः-यद्यपि सामान्य रीतिसे मति श्रुत परोक्ष हैं तथापि दर्शनमोहनीयके नाश या उपशम या क्षयोपशम होनेसे सम्यग्दृष्टिके स्वात्मानुभवरूप मतिज्ञान विशेष उत्पन्न होजाता है वही प्रत्यक्ष है, परन्तु स्वात्मानुभवको छोड़ कर इतर पदार्थों के ग्रहण कालमें उक्त ज्ञान परोक्ष ही है। इसका कारण---
तदभिज्ञानं हि यथा शुद्धस्वात्मानुभूतिसमयेस्मिन् । स्पर्शनरसनघ्राणं चक्षुः श्रोत्रं च नोपयोगि मतम् ॥ ७११ ॥
अर्थ-इसका कारण यह है कि इस शुद्ध स्वात्मानुभवके समयमें स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाचों इन्द्रिया उपयोगात्मक नहीं मानी गई हैं। अर्थात् शुद्धआत्मानुभवके समय इन्द्रियजन्य ज्ञान नहीं होता है, किन्तु
केवलमुपयोगि मनस्तत्र च भवतीह तन्मनो वेधा।
द्रव्यमनो भावमनो नोइन्द्रियनाम किल स्वार्थात् ॥७१२॥
अर्थ-केवल मन ही उस समय उपयुक्त होता है । वह मन दो प्रकार है । (१) द्रव्यमन ( २ ) भावमन । मनका ही उसके अनुसार दूसरा नाम नो इन्द्रिय है। भावार्थ निस प्रकार इन्द्रियां बाह्य स्थित हैं और नियत विषयको जानती हैं उस प्रकार मन बाह्य स्थित नहीं है तथा नियत विषयको भी नहीं जानता है। इसलिये वह ईषत् (कम) इन्द्रिय होनेसे नोइन्द्रिय कहलाता है।
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