Book Title: Panchadhyayi Purvardha
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Granthprakashan Karyalay Indore

View full book text
Previous | Next

Page 227
________________ २०८ पञ्चाध्यायी। [प्रथम - अर्थ-उपचारका कारण भी यह है कि जिस प्रकार मतिज्ञान नियमसे इन्द्रियजन्य ज्ञान है, और उस मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान भी इन्द्रियजन्य है। उस प्रकार अवधि और मनः पर्यय ज्ञान इन्द्रियजन्य नहीं है इसीलिये अवधि और मनःपर्यय उपचारसे प्रत्यक्ष कहे जाते हैं। यस्यादवग्रहेहावायानतिधारणापरायत्तम् । ___आद्यं ज्ञानं व्यमिह यथा तथा नैव चान्तिमं दैतम् ॥ ७०४॥ अर्थ-अवग्रह, ईहा, अवाय धारणाके पराधीन जिस प्रकार आदिके दो ज्ञान होते हैं उस प्रकार अन्तके दो नहीं होते । दूरस्थानानिह समक्षमिव वेत्ति हेलया यस्मात् । केवलमेव मनःसादवधिमनः पर्ययद्वयं ज्ञानम् ॥ ७०५ ॥ अर्थ---अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान केवल मनकी सहायतासे दूरवर्ती पदार्थोंको कौतुकके समान प्रत्यक्ष जान लेते हैं। मतिश्रुत भी मुख्य प्रत्यक्षके समान प्रत्यक्ष हैंअपि किंवाभिनिबोधिकबोधदैतं तदादिमं यावत् । स्वात्मानुभूतिसमये प्रत्यक्षं तत्समक्षमिव नान्यत् ॥ ७०६ ॥ अर्थ-विशेष बात यह है कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये आदिके दो ज्ञान भी स्वात्मानुभूतिके समय प्रत्यक्ष ज्ञानके समान प्रत्यक्ष हो जाते हैं, और समयमें नहीं। भावार्थ-केवल स्वात्मानुभवके समय जो ज्ञान होता है वह यद्यपि मतिज्ञान है तो भी वह वैसा ही प्रत्यक्ष है जैसा कि आत्ममात्र सापेक्ष ज्ञान प्रत्यक्ष होता है । किन्तु---- तदिह दैतमिदं चित्स्पर्शादीन्द्रियविषयपरिग्रहणे । व्योमाद्यवगमकाले भवति परोक्षंन समक्षमिह नियमात्।।७०७॥ अर्थ-वे ही मतिज्ञान श्रुतज्ञान जब स्पर्शादि इन्द्रियोंके विषयोंका (मानसिक) बोध करने लगते हैं तब वे नियमसे परोक्ष हैं, प्रत्यक्ष नहीं । शङ्काकारननु चाये हि परोक्षे कथमिव सूत्रे कृतः समुद्देशः। अपि तल्लक्षणयोगात् परोक्षमिव सम्भवत्येतत् ।।७०८॥ . अर्थ--'आये परोक्षम्' इस सूत्रमें मतिज्ञान श्रुतज्ञानको परोक्ष बतलाया गया है, तथा परोक्षका लक्षण भी इन दोनोंमें सुघटित होता है इसलिये ये दोनों ज्ञान परोक्ष हैं। फिर उन्हें स्वानुभूतिके समय प्रत्यक्ष क्यों बतलाया जाता है ? भावार्थ-आगम प्रमाणसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246