Book Title: Panchadhyayi Purvardha
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Granthprakashan Karyalay Indore

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Page 233
________________ २१४ ] पञ्चाध्यायी। उत्तरनैवं यतः प्रमाणं फलं च फलवञ्च तत्स्वयं ज्ञानम् । दृष्टिर्यथा प्रदीपः स्वयं प्रकाश्यः प्रकाशकश्च स्यात् ॥७२८॥ अर्थ-ऊपर की हुई शंका ठीक नहीं है, क्योंकि प्रमाण, उसका फल, उसका कारण स्वयं ज्ञान ही है। जिस प्रकार दीपक स्वयं अपना भी प्रकाश करता है और दूसरोंका भी प्रकाश करता है, अथवा दीपक स्वयं प्रकाश्य (जिसका प्रकाश किया जाय) भी है और वही प्रकाशक है । भावार्थ-दीपकके दृष्टान्तके समान प्रमाण भी ज्ञान ही है, प्रमाणका कारण भी ज्ञान ही है और प्रमाणका फल भी ज्ञान ही है। ज्ञानसे भिन्न न कोई प्रमाण है और न उसका फल ही है । यहां पर यह शंका अभी खड़ी ही रहती है कि दोनोंको ज्ञानरूप . माननेसे दोनों एक ही हो जायंगे, अथवा फल शून्य प्रमाण और प्रमाणशून्य फल हो जायगा, परन्तु विचार करनेपर यह शंका भी निर्मूल ठहरती है, जैन सिद्धान्तमें प्रमाण और प्रमाणका फल सर्वथा भिन्न नहीं है। किन्तु कथञ्चित् भिन्न है, कथञ्चित् भेदमें ज्ञानकी पूर्व पर्याय प्रमाणरूप पड़ती है उसकी उत्तर पर्याय फलरूप पड़ती है। क्योंकि प्रमाणका फल अज्ञान निवृत्ति माना है तथा हेयोपादेय और उपेक्षा भी प्रमाणका फल है । जो प्रमाणरूप ज्ञान है वही ज्ञान अज्ञानसे निवृत्त होता है और उसीमें हेयोपादेय तथा उपेक्षा रूप बुद्धि होती है। इसलिये ज्ञान ही प्रमाण और ज्ञान ही फल सिद्ध हो चुका। साथ ही प्रमाण और प्रमाणका फल दोनों एक हो जायंगे अथवा फल शून्य प्रमाण हो जायगा, इस शंकाका परिहार भी हो चुका। उक्तं कदाचिदिन्द्रियमथ च तदर्थेन सन्निकर्षयुतम् । भवति कदाचिज्ज्ञानं त्रिविधं करणं प्रमायाश्च ॥ ७२९ ॥ पूर्व पूर्व करणं तत्र फलं चोत्तरोत्तरं ज्ञेयम् । न्यायात्सि हमिदं चित्फलं च फलवच्च तत्स्वयं ज्ञानम् ॥ ७३० ॥ अर्थ---कभी इन्द्रियोंको प्रमाण कहा गया है, कभी इन्द्रिय और पदार्थके सन्निकर्षको प्रमाण कहा गया है, कभी ज्ञानको ही प्रमाण कहा गया है। इस प्रकार तीन प्रकार प्रमा (प्रमाणका फल)का करण अर्थात् प्रमाणका परम साधक कारण कहा गया है । ये तीनों ही आत्माकी अवस्थायें हैं । पहली इन्द्रियरूप अवस्था भी आत्मावस्था है, सन्निकर्ष विशिष्ट अवस्था भी आत्मावस्था है । तथा ज्ञानावस्था भी आत्मावस्था है, अर्थात् तीनों ही ज्ञान रूप हैं। इन तीनोंमें पहला पहला करण पड़ता है और आगे आगेका फल पड़ता है । इसलिये यह बात न्यायसे सिद्ध हो चुली कि ज्ञान ही फल है और ज्ञान ही प्रमाण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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