Book Title: Panchadhyayi Purvardha
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Granthprakashan Karyalay Indore

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Page 235
________________ २१६] पञ्चाध्यायी। स यथा चेत्प्रमाणं लक्ष्यं तल्लक्षणं प्रमाकरणम् ।। अव्याप्तिको हि दोषः सदेश्वरे चापि तदयोगात् ॥ ७३४ ॥ अर्थ-यदि प्रमाण लक्ष्य है, उसका प्रमाकरण लक्षण है तो अव्याप्ति दोष आता है, क्योंकि ईश्वरमें उस लक्षणका सदा अभाव रहता है । भावार्थ-नैयायिक ईश्वरको प्रमाण तो मानते हैं वे कहते हैं 'तन्मे प्रमाण शिव इति' अर्थात् वह ईश्वर मुझे प्रमाण है । परन्तु वे उस ईश्वरको प्रमाका करण नहीं मानते हैं किन्तु उसका उसे अधिकरण मानते हैं । उनके मतसे ईश्वर प्रमाण है तो भी उसमें प्रमाकरण रूप प्रमाणका लक्षण नहीं रहता । इसलिये लक्ष्यके एक देश-ईश्वरमें प्रमाणका लक्षण न जानेसे अव्याप्ति दोष बना रहा । तथा योगिज्ञानेपि तथा न स्यात्तल्लक्षणं प्रमाकरणम् । परमाण्वादिषु नियमान स्यात्तत्सन्निकर्षश्च ॥७३॥ अर्थ—इसी प्रकार जो लोग प्रमाकरण प्रमाणका लक्षण करते हैं उनके यहां योगियोंके ज्ञानमें भी उक्त लक्षण नहीं जाता है, क्योंकि उन्हीं लोगोंने योगियोंके ज्ञानको दिव्य ज्ञान माना है वह सूक्ष्म और अमूर्त पदार्थोंका भी प्रत्यक्ष करता है ऐसा वे स्वीकार करते हैं परन्तु परमाणु आदि पदार्थोंमें इन्द्रिय सन्निकर्ष नियमसे नहीं हो सक्ता है । भावार्थइन्द्रियसन्निकर्ष अथवा इन्द्रियव्यापार ही को वे प्रमाकरण बतलाते हैं, यह सन्निकर्ष और व्यापार स्थूल मूर्त पदार्थों के साथ ही हो सक्ता है, सूक्ष्म परमाणु तथा अमूर्त धर्माधर्म, और दूरवर्ती पदार्थोंका वह नहीं हो सक्ता है, इसलिये सन्निकर्ष अथवा इन्द्रियव्यापार-प्रमाकरणको प्रमाण माननेसे योगीजन सूक्ष्मादि पदार्थोंका प्रत्यक्ष नहीं कर सक्ते परन्तु वे करते हैं ऐसा वे मानते हैं इसलिये योगीजनोंमें उनके मतसे ही प्रमाकरण लक्षण नहीं जाता है यदि वे योगियोंको प्रमाका करण स्वयं नहीं मानते हैं तो उनके मतसे ही प्रमाणका लक्षण अव्याप्ति दोषसे दूषित हो गया । क्योंकि उन्होंने योगियोंके ज्ञानको प्रमाण माना है। वेद भी प्रमाण नहीं हैवेदाः प्रमाणमत्र तु हेतुः केवलमपौरुषेयत्वम् । आगमगोचरताया हेतोरन्याश्रितादहेतुत्वम् ॥ ७३६ ॥ अर्थ-वेदको प्रमाण माननेवाले वेदान्ती तो केवल अपौरुषेय हेतु द्वारा उसमें प्रमाणता लाते हैं। दूसरा उनका हेतु आगम है, आगम प्रमाणरूप हेतु अन्योन्याश्रय दोष आनेसे अहेतु हो जाता है । भावाथ-वेदको अपौरुषेय माननेवाले उसकी अनादितामें प्रवाह नित्यताका हेतु देते हैं, वह प्रवाह नित्यता क्या शद्वमात्रमें है या विशेष आनुपूर्वीरूप जो शब्द वेदमें उल्लिखित हैं उन्हींमें है ? यदि पूर्व पक्ष स्वीकार किया जाय तब तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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