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पञ्चाध्यायी।
[प्रथम
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___ अर्थ-नय और प्रमाणके समान निक्षेपोंका स्वतन्त्र निरूपण करना व्यर्थ है, क्योंकि निक्षेपोंका उदाहरण नयोंके विवेचनमें नियमसे किया गया है।
एक अनेक पक्षअस्ति द्रव्यं गुणोऽथवा पर्यायस्तस्त्रयं मिथोऽनेकम् । व्यवहारैकविशिष्टो नयः स वाऽनेकसंज्ञको न्यायात् ॥७५२॥
अर्थ-द्रव्य, अथवा गुण अथवा पर्याय, ये तीनों ही अनेक हैं । व्यवहार विशिष्ट यही नय अनेक संज्ञक कहलाता है, अर्थात् व्यवहार नाम पर्यायका है पर्याय विशिष्ट अनेक अनेक पर्यायार्थिक नय कहलाता है ।
एकं सदिति द्रव्यं गुणोऽथवा पर्ययोऽथवा नाम्ना । इतरदयमन्यतरं लब्धमनुक्तं स एकनयपक्षः ॥७५३॥
अर्थ-द्रव्य अथवा गुण अथवा पर्याय ये तीनों ही एक नामसे सत् कहे जाते हैं। अर्थात् तीनों ही अभिन्न एक सतरूप हैं। एकके कहनेसे बाकीके दो का विना कहे हुए ही ग्रहण हो जाता है । यही एक नयका पक्ष है अर्थात् एक पर्यायार्थिक नयका पक्ष है ।
न द्रव्यं नापि गुणो नच पर्यायो निरंशदेशत्वात् ।
व्यक्तं न विकल्पादपि शुद्धद्रव्यार्थिकस्य मतमेतत् ॥७५४॥
अर्थ---न द्रव्य है, न गुण है, न पर्याय है और न विकल्पद्वारा ही प्रकट है किन्तु निरंश देशात्मक (तत्व) है । यह शुद्ध द्रव्यार्थिक नयका पक्ष है ।
द्रव्यगुणपर्ययाख्यैर्यदने सद्धिभिद्यते हेतोः । तदभेद्यमनंशत्वादेकं सदिति प्रमाणमतमेतत् ॥७२५॥
अर्थ-कारण वश जो सत् द्रव्यगुण पर्यायोंके द्वारा अनेक रूप भिन्न किया जाता है वही सत् अंश रहित होनेसे अभिन्न एक है । यह एक अनेकात्मक उभयरूप प्रमाणपक्ष है।
अस्ति नारित पक्ष-- अपि चास्ति सामान्यमात्रादथवा विशेषमात्रत्वात् ।
अविवक्षितो विपक्षो यावदनन्यः स तावदस्ति नयः ॥७५६॥ अर्थ-वस्तु सामान्यमात्रसे है, अथवा विशेषमात्रसे है । जब तक विपक्षनय अविवक्षित (गौण) रहता है तबतक अनन्यरूपसे एक अस्ति नय ही प्रधान रहता है ।
नास्ति च तदिह विशेषैः सामान्यस्याविवक्षितायां वा। - सामान्यरितरस्य च गौणत्वे सति भवति नास्ति नयः ॥७५७॥
अर्थ-वस्तु सामान्यकी अविवक्षामें विशेषरूपसे नहीं है, अथवा विशेषकी अविवक्षामें सामान्यरूपसे नहीं है यहां पर नास्ति नय ही प्रधान रहता है ।
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