Book Title: Panchadhyayi Purvardha
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Granthprakashan Karyalay Indore

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Page 229
________________ २१० ] पञ्चाध्यायी । द्रव्यमन द्रव्यमनो हृत्कमले घनाङ्गुला संख्यभागमात्रं यत् । अचिदपि च भावमनसः स्वार्थग्रहणे सहायतामेति ॥ ७१३ ॥ अर्थ --- द्रव्यमन हृदय कमलमें होता है, वह घनागुलके असंख्यात मात्र भाग प्रमाण होता है । यद्यपि वह अचेतन - जड़ है तथापि भाव मन जिस समय पदार्थोंको विषय करता है उस समय द्रव्यमन उसकी सहायता करता है । भावार्थ- पुद्गलकी जिन पाँच वर्गणाओंसे जीवका सम्बन्ध है उनमें एक मनोवर्गणा भी है । उसी मनोवर्गणाका हृदय स्थान में कमलवत् द्रव्य मन बनता है। उसी द्रव्य मनमें आत्माका हेयोपादेवरूप विशेष ज्ञान - भाव मन उत्पन्न होता है । जिस प्रकार रूपका बोध आत्मा चक्षु राही करता है उसी प्रकार आत्माके विचारोंकी उत्पत्तिका स्थान द्रव्यमन है । भावमन--- भावमनः परिणामो भवति तदात्मोपयोगमात्रं वा । doeपयोगविशिष्टं स्वावरणस्य क्षयाक्रमाच्च स्थात् ॥११४॥ अर्थ - भावमन आत्माका ज्ञानात्मक परिणाम विशेष है । वह अपने प्रतिपक्षी- -आवरण कर्मके क्षय होने से लब्धि और उपयोग सहित क्रमसे होता है। भावार्थ -- कर्मों के क्षयोपशमसे जो आत्मामें विशुद्धि - निर्मलता होती है उसे लब्धि कहते हैं, तथा पदार्थोंकी ओर उन्मुख ( रुजू ) होकर उनके जाननेको उपयोग कहते हैं । विना लब्धिरूप ज्ञानके उपयोगात्मक बोध नहीं हो सक्ता है, परन्तु लब्धिके रहते हुए उपयोगात्मक बोध हो या न हो, नियम नहीं है । मनसे जो बोध होता है वह युगपत् नहीं होता है किन्तु क्रमसे होता है । स्पर्शनरसनघ्राणं चक्षुः श्रोत्रं च पञ्चकं यावत् । मूर्तग्राहकमेकं मूर्त्तमूर्तस्थ वेदकं च मनः ॥ ११५ ॥ अर्थ-स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु और श्रोत्र ये जितनी भी पाचों इन्द्रियां हैं सभी एक मूर्त पदार्थको ग्रहण करनेवाली हैं । परन्तु मन मूर्त और अमूर्त दोनोंको जाननेवाला है । तस्मादिदमनवद्यं स्वात्मग्रहणे किलोपयोगि मनः । किन्तु विशिष्टदशायां भवतीह मनः स्वयं ज्ञानम् ॥११३॥ अर्थ — इसलिये वह वात निर्दोष रीति से सिद्ध हो चुकी कि स्वात्माके ग्रहण करनेमें नियमसे मन ही उपयोगी है । किन्तु इतना विशेष है कि वह मन विशेष अवस्थामें अर्थात् अमूर्त पदार्थ ग्रहण करते समय स्वयं भी अमूर्त ज्ञानरूप हो जाता है । भावार्थ- पहले कहा गया है कि स्वात्मानुभूति यद्यपि मतिज्ञान स्वरूप है अथवा तत्पूर्वक श्रुत ज्ञान स्वरूप भी है । तथापि वह निरपेक्ष ज्ञानके समान प्रत्यक्ष ज्ञान रूप है । इसी वातको यहां पर 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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