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२० ]
पञ्चाध्यायी।
[प्रथम
आशङ्का--
अथ चेद्भिन्नो देशो भिन्ना देशाश्रिता विशेषाश्च ।
तेषामिह संयोगाद्व्यं दण्डीव दण्डयोगादा ॥४१॥
अर्थ-यदि देशको भिन्न समझा जाय और देशके आश्रित रहनेवाले विशेषोंको भिन्न समझा जाय, तथा उन सबके संयोगसे द्रव्य कहलाने लगे। जिस प्रकार पुरुष भिन्न है, दण्ड ( डंडा ) भिन्न है, दोनोंके संयोगसे दण्डी कहलाने लगता है तो
उत्तरनैवं हि सर्वसङ्कर दोषत्वादा सुसिद्धदृष्टान्तात् ।
तत्कि चेतनयोगादचेतनं चेतनं न स्यात् ॥ ४२॥
अर्थ-उपर्युक्त आशंका ठीक नहीं है । देशको भिन्न और गुणोंको देशाश्रित भिन्न स्वीकार करनेसे सर्व संकर दोष आवेगा । यह बात सुघटित दृष्टान्त द्वारा प्रसिद्ध है । गुणोंको भिन्न माननेसे क्या चेतना गुणके सम्बन्धसे अचेतन पदार्थ चेतन ( जीव ) नहीं हो जायगा ?
- भावार्थ-जब गुणोंको द्रव्यसे पृथक् स्वीकार किया जायगा, तो ऐसी अवस्थामें गुण स्वतन्त्र होकर कभी किसीसे और कभी किसीसे संबंधित हो सक्ते हैं । चेतना गुणको यदि जीवका गुण न मानकर एक स्वतन्त्र पदार्थ माना जाय तो वह जिस प्रकार जीवमें रहता है उसी प्रकार कभी अजीव-जड़ पदार्थमें भी रह जायगा । उस अवस्थामें अजीव भी जीव कहलाने लगेगा। फिर पदार्थाका नियम ही नहीं रह सकेगा, कोई पदार्थ किसी रूप हो जायगा, इसलिये द्रव्यसे गुणको भिन्न सत्तावाला मानना सर्वथा मिथ्या है। .
अथवाअथवा विना विशेषैः प्रदेशसत्त्वं कथं प्रमीयेत ।
अपि चान्तरण देशैविशेषलक्ष्मावलक्ष्यते च कथम् ॥४३॥
अर्थ-दूसरी वात यह भी है कि विना गुणोंके द्रव्यके प्रदेशोंकी सत्ता ही नहीं जानी जा सक्ती अथवा विना प्रदेशोंके गुण भी नहीं जाने जा सक्ते ।
भावार्थ-गुण समूह ही प्रदेश हैं । विना समुदायके समुदायी नहीं रह सकता, और विना समुदायीके समुदाय नहीं रह सकता-दोनोंके विना एक भी नहीं रह सकता, अथवा शब्दान्तरमें ऐसा कहना चाहिये कि दोनों एक ही बात है।
गुण, गुणीको भिन्न माननेमें दोप---- 'अथ चैतयोः पृथक्त्वे हठादहतोश्च मन्यमानेपि । ' 'कथमिवगुणगुणिभावः प्रमीयते सत्समानत्वात् ॥ ४४ ।। अर्थ-यदि हठ पूर्वक बिना किसी हेतुके गुण और गुणी भिन्न भिन्न . सत्तावाले ही
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