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पचाध्यायी ।
फिर भी खुलासा -
अपि चाङ्कुरसृष्टेरिह य एव समय: स वीजनाशस्य । उभयोरप्यात्मत्वात् स एव कालश्च पादपत्त्वस्य ।। २३९ ॥ अर्थ --- जो अंकुरकी उत्पत्तिका समय है । वही समय बीजके नाशका है, और अंकुरका उत्पाद तथा बीजका नाश दोनों ही वृक्ष स्वरूप हैं। इस लिये जो समय बीजके नाश और अंकुर उत्पादका है वही समय वृक्षके धौव्यका है ।
सारांश
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तस्मादनवद्यमिदं प्रकृतं तत्त्वस्य चैकसमये स्यात् । उत्पादादित्रयमपि पर्यायार्थान्न सर्वथापि सतः ॥ २४० ॥
अर्थ — इसलिये यह बात सर्वथा निर्दोष सिद्ध हो गई कि सत् (पदार्थ) के एक समय में ही उत्पादादिक तीनों होते हैं वे भी पदार्थ के पर्यायदृष्टिसे होते हैं, पर्यायनिस पदार्थ नहीं होते । विरोध संभावना
भवति विरुद्धं हि तदा यदा सतः केवलस्य तत्रितयम् । पर्ययनिरपेक्षत्वात् क्षणभेदोपि च तदैव सम्भवति ॥ २४१ ॥
[ प्रथम
अर्थ - जिस सम उत्पाद आदि तीनों, पर्यायनिरपेक्ष केवल पदार्थके ही माने जांयगे उस समय अवश्य ही तीनोंका एक साथ विरोध होगा, और उसी समय उनके समय भेदकी संभावना भी है ।
अथवा
यदि वा भवति विरुद्धं तदा यदाप्येकपर्ययस्य पुन : | अस्त्युत्पादो यस्य व्ययोपि तस्यैव तस्य वै धौव्यम् ॥ २४२ ॥
अर्थ -- अथवा तत्र भी विरोध होगा जब कि जिस एक पर्यायका उत्पाद है, उसीका
व्यय भी माना जाय, और उसी एक पर्यायका धन्य भी माना जाय ।
उत्पादादिकका अविरुद्ध स्वरूप ---
प्रकृतं सतो विनाशः केनचिदन्येन पर्ययेण पुनः । Sharada पुनः स्यादुत्पादो ध्रुवं तदन्येन ॥ २४३ ॥
अर्थ -- प्रकृत में ऐसा है कि किसी अन्य पर्यायसे सत्का विनाश होता है, तथा किसी अन्य पर्यायसे उसका उत्पाद होता है, और किसी अन्य पर्यायसे ही उसका धौन्य होता है
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दृष्टान्त-
संदृष्टिः पादपवत् स्वयमुत्पन्नः सदङ्कुरेण यथा । नष्टो बीजेन पुनर्ध्रुवमित्युभयत्र पादपत्वेन ॥ २४४ ॥
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