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पश्चाध्यायी।
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तस्मादनन्याशरणं वदपि ज्ञान स्वरूपसिछात्वात् ।
उपचरितं हेतुवशात् तदिह ज्ञानं तदनशरणमिव ९४३॥
अर्थ-इसलिये ज्ञान अपने स्वरूपसे स्वयं सिद्ध है अतएव वह अनन्य शरण (उसका वही अवलम्बन) है तो भी हेतु वश वह ज्ञान अन्य शरणके समान उपचरित होता है।
ऐसा होने में हेतु--- हेतुः स्वरूपसिद्धिं विना न परसिधिरप्रमाणत्वात् ।
तदपि च शक्तिविशेषाद्रव्यविशेष यथा प्रमाणं स्यात् ॥५४४॥
अर्थ--ऐसा होनेमें कारण भी यह है कि स्वरूप सिद्धिके विना परसे सिद्धि अप्रमाण ही है, अर्थात् ज्ञान स्वरूपसे सिद्ध है तभी वह परसे भी सिद्ध माना जाता है। ज्ञान स्वरूपसे सिद्ध है इस विषयमें भी यही कहा जा सकता है कि वह द्रव्य विशेष (जीव द्रव्य)का गुण विशेष है । यह बात प्रमाण पूर्वक सिद्ध है । भावार्थ- अर्थ विकल्पो ज्ञानं प्रमाणम्, अर्थात् स्व-पर पदार्थका बोध ही प्रमाण है । ऐसा ऊपर कहा गया है । इस बाथनसे ज्ञानमें प्रमाणता परसे लाई गई है। परन्तु परसे प्रमाणता ज्ञानमें तभी आसकती है जब कि वह अपने स्वरूपसे सिद्ध हो, इसी बातको यहां पर स्पष्ट किया । गया है कि ज्ञान अपने स्वरूपसे स्वयं सिद्ध है । कारण कि वह जीवद्रव्यका विशेष गुण है खयं सिद्ध होकर ही वह परसे उपचरित कहा जाता है ।
इसका फल । अर्थो ज्ञेयज्ञायकसङ्करदोषभ्रमक्षयो यदि वा।।
अविनाभावात् साध्यं सामान्यं साधको विशेष: स्यात् ।।५४५॥
अर्थ-उपचरित-सद्भूत व्यवहार नयका यह फल है कि ज्ञेय और ज्ञायकमें अर्थात् ज्ञान और पदार्थमें संकर दोष न उत्पन्न हो, तथा किसी प्रकारका भ्रम भी इनमें न उत्पन्न हो । यदि पहले ज्ञेय और ज्ञायकमें संकर दोष अथवा दोनोंमें भ्रम हुआ हो तो इस नयके जानने पर वह दोष तथा वह भ्रम दूर हो जाता है । यहां पर अविनाभाव होनेसे सामान्य साध्य है तथा विशेष उसका साधक है अर्थात् ज्ञान साध्य है और घटज्ञान पटज्ञानादि उसके साधक हैं। दोनोंका ही अविनाभाव है। कारण कि पदार्थ प्रमेय है इसलिये वह किसी न किसीके ज्ञानका विषय होता ही है और ज्ञान भी ज्ञेयका अबलम्बन करता ही है निर्विषय वह भी नहीं होता। भावार्थ-कोई पदार्थके स्वरूप नहीं समझनेवाले ज्ञानको घट पटादि पदार्थोका धर्म बतलाते हैं, कोई २ ज्ञेयके धर्म ज्ञायकमें बतलाते हैं । अथवा विषय-विषयीके सम्बन्धमें किन्हींको भ्रम हो रहा है उन सबका अज्ञान दूर करना ही इस नयका फल है। इस नय द्वारा यही बात बतलाई गई है कि विकल्पता
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