Book Title: Panchadhyayi Purvardha
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Granthprakashan Karyalay Indore

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Page 215
________________ - १९६] पश्चाध्यायी। अर्थ-यहां पर इतना ही तात्पर्य है कि जीवादिक जो पदार्थ हैं वे आत्मशुद्धिके लिये तभी उपयुक्त होसक्ते हैं जब कि वे व्यवहार और निश्चय नयके द्वारा अविरुद्ध रीतिसे जाने जाते हैं। अपि निश्चयस्य नियतं हेतुः सामान्यमात्रमिह वस्तु। फलमात्मासिद्धिः स्यात् कर्मकलंकावमुक्तबोधात्मा ॥६६३ ॥ अर्थ-निश्चय नयका कारण नियमसे सामान्य मात्र वस्तु है । फल आत्माकी सिद्धि है। निश्चय नयसे वस्तु बोध करने पर कर्म कलंकसे रहित ज्ञानवाला आत्मा हो जाता है। __ प्रमाणका स्वरूप कह की प्रतिज्ञा-- उक्तो व्यवहारनयस्तदनु नयो निश्चयः पृथक पृथक् । युगपवयं च मिलितं प्रमाणमिति लक्षणं वक्ष्ये ॥ ६६४ ॥ अर्थ-व्यवहार नयका स्वरूप कहा गया, उसके पीछे निश्चय नयका भी स्वरूप कहा गया। दोनों ही नय भिन्न २ स्वरूपवाले हैं । जब एक साथ दोनों नय मिल जाते हैं तभी यह प्रमाणका स्वरूप कहलाता है । उसी प्रमाणका लक्षण कहा जाता है। प्रमाणका स्वरूपविधिपूर्वः प्रतिषेधः प्रतिषेधपुरस्सरो विधिस्त्वनयोः। मैत्री प्रमाणमिति वा स्वपराकारावगाहि यज्ज्ञानम् ॥६३५॥ अर्थ-विधिपूर्वक प्रतिषेध होता है । प्रतिषेध पूर्वक विधि होती है । विधि और प्रतिषेध इन दोनोंकी जो मैत्री है वही प्रमाण कहलाता है अथवा स्व. परको जाननेवाला जो ज्ञान है वही प्रमाण कहलाता है। स्पष्टीकरणअयमोंर्थविकल्पो ज्ञानं किल लक्षणं स्वतस्तस्य । एकविकल्पो नयसादुभयविकल्पः प्रमाणमिति बोधः ॥६६६॥ अर्थ-ऊपर जो कहा गया है उसका खुलासा इस प्रकार है । अर्थाकार-पदार्थाकार परिणमन करनेका नाम ही अर्थ विकल्प है, यही ज्ञानका लक्षण है । वह ज्ञान जब एक विकल्प होता है अर्थात एक अंशको विषय करता है तब वह नयाधीन–नयात्मक ज्ञान कहलाता है, और वही ज्ञान जव उभय विकल्प होता है अर्थात् पदार्थके दोनों अंशोंको विषय करता है तब वह प्रमाणरूप ज्ञान कहलाता है । भावार्थ-पदार्थमें सामान्य और विशेष ऐसी दो प्रकार की प्रतीति होती है । 'यह वही है, ऐसी अनु त प्रतीतिको सामान्य प्रतीति कहते हैं, तथा विशेष २ पर्यायात्मक प्रतिको विशेष प्रतीति कहते हैं । सामान्य विशेष प्रतीति पदार्थमै तभी होसक्ती है जब कि वह सामान्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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