Book Title: Panchadhyayi Purvardha
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Granthprakashan Karyalay Indore

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Page 217
________________ १९८] पञ्चाध्यायी। भी बने रहें तो भी पदार्थका यह स्वभाव है कि वह परस्पर विरुद्ध धर्मोको भी एक समयमें धारण करे, इसका कारण द्रव्य और पर्याय है। द्रव्यदृष्टिसे पदार्थ सदा सत् रूप है, भावरूप है, नित्य है, अभिन्न है, एक है, परन्तु वही पदार्थ पर्यायदृष्टि से असत् है, अभावरूप है, अनित्य है, भिन्न है, अनेक है । ग्रन्थान्तरमें कहा भी है-'समुदेति विलय मृच्छति भावो नियमेन पर्ययनयेन, नोदेति नो विनश्यति द्रव्यनयालिङ्गितो नित्यम्, अर्थात् पदार्थ पर्यायदृष्टिसे उत्पन्न भी होता है तथा नष्ट भी होता रहता है, परन्तु द्रव्य दृष्टिसे न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है । स्वामी समन्तभद्राचार्यने भी कहा है-"सत्सामान्यात्तु सर्वैक्यं पृथग्द्रव्यादिभेदतः । भेदाभेदविवाक्षायामसाधारणहेतुवत्"॥ अर्थात् जिस प्रकार असाधारण हेतु पक्षधर्मादि भेदोंकी अपेक्षासे अनेक है और हेतु सामान्यकी अपेक्षासे वही हेतु एक है । उसी प्रकार पदार्थ भी द्रव्यभेदकी अपेक्षासे भिन्न है-अनेक है, परन्तु वही पदार्थ सत् सामान्यकी अपेक्षासे अभिन्न-एक है । इसलिये पदार्थ कथंचित् भेदाभेद विवक्षासे एक अनेक भिन्न अभिन्न आदि धर्मोवाला एक ही समयमें ठहरता है । विना अपेक्षादृष्टिसे उन्हीं दो धर्मों में विरोध दीखता है, अपेक्षादृष्टिका परिज्ञान करनेसे . उन्हींमें अविरोध दीखने लगता है। ___ अयमों जीवादौ प्रकृतपरामर्शपूर्वकं ज्ञानम् । यदि वा सदभिज्ञानं यथा हि सोयं बलावयामर्शि ॥६७१॥ अर्थ-ऊपर जो कुछ कहा गया है उसका यह अर्थ है कि जीवादि पदार्थोंमें व्यवहार और निश्चयके विचारपूर्वक जो ज्ञान है वही प्रमाण ज्ञान है । अथवा पदार्थमें जो प्रत्यभिज्ञान है वह प्रमाण ज्ञान है जैसे यह वही है, इसप्रकारका ज्ञान एक वस्तुकी सायान्य . . विशेष दोनों अवस्थाओंको एक समयमें ग्रहण करता है। । दृष्टान्त सोयं जीवविशेषो यः सामान्येन सदिति वस्तुमयः । संस्कारस्य वशादिह सामान्यविशेषजं भवेज्ज्ञानम् ॥६७२।। अर्थ---वही यह जीव विशेष है जो सामान्यतासे सन्मात्र-वस्तुरूप था। उस सत्पदार्थमें संस्कारके वशसे सामान्यविशेषात्मक ज्ञान हो जाता है । भावार्थ-सामान्य दृष्टि से वस्तु सन्मात्र प्रतीत होती है । विशेष दृष्टि से वही विशेष पदार्थरूप प्रतीत होती है । जो जीव पदार्थ सन्मात्र प्रतीत होता है। वही जीव रूप (विशेष) भी प्रतीत होता है। जिस समय सन्मात्र और जीवरूप विशेषका बोध एक साथ होता है वही सामान्य विशेषको विषय करनेवाला प्रमाण ज्ञान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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