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अध्याय ।।
सुबोधनी टीका।
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अर्थ-प्रत्यक्ष दो प्रकारका है (१) सकल प्रत्यक्ष (२) विकल प्रत्यक्ष । जो अक्षयअविनाशी ज्ञान है वह सकल प्रत्यक्ष है। दूसरा विकल प्रत्यक्ष अर्थात् देश प्रत्यक्ष कर्मों के क्षयोपशमसे होता है। देश प्रत्यक्ष कर्मोके क्षयसे नहीं होता है, तथा यह विनाशी भी है।
सकल प्रत्यक्षका स्वरूपअयमों यज्ज्ञानं समस्तकर्मक्षयोद्भवं साक्षात् ।
प्रत्यक्षं क्षायिकमिदमक्षातीतं सुखं तदक्षयिकम् ॥ ६९८ ॥
अर्थ-स्पष्ट अर्थ यह है कि जो ज्ञान समस्त कर्मोंके क्षयसे प्रकट होता है तथा जो साक्षात्-आत्म मात्र सापेक्ष होता है वह सकल प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। वह प्रत्यक्ष ज्ञान क्षायिक है, इन्द्रियोंसे रहित है, आत्मीक सुख स्वरूप है, तथा अविनश्वर है। भावार्थ-आवरण और इन्द्रियों सहित जो ज्ञान होता है वह पूर्ण नहीं होसक्ता, कारण जितने अंशमें उस ज्ञानके साथ आवरण लगे हुए हैं उतने अंशमें वह ज्ञान छिपा हुआ ही रहेगा । जैसा कि हम लोगोंका ज्ञान आवरण विशिष्ट है इसलिये वह स्वल्प है। इसी प्रकार इन्द्रियों सहित ज्ञान भी पूर्ण नहीं होसक्ता है । क्योंकि इन्द्रिय और मनसे जो ज्ञान होता है वह द्रव्य,क्षेत्र, काल, भावकी मर्यादाको लिये हुए होता है, साथ ही वह क्रमसे होता है, इसलिये जो इन्द्रियोंसे रहित तथा आवरणसे रहित ज्ञान है वही पूर्ण ज्ञान है । वह ज्ञान फिर कभी नष्ट भी नहीं होसक्ता है और उसी परिपूर्ण ज्ञान-केवल ज्ञानके साथ अनन्त अक्षातीत आत्मीक सुख गुण भी प्रकट होजाता है।
देश प्रत्यक्षका स्वरूपदेशप्रत्यक्षमिहाप्यवधिमनःपर्ययं च यज्ज्ञानम् ।
देशं नोइन्द्रियमन उत्थात् प्रत्यक्षमितरनिरपेक्षात् ॥ ६९९॥
अर्थ-अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान ये दो ज्ञान देश प्रत्यक्ष कहलाते हैं। देश प्रत्यक्ष इन्हें क्यों कहते हैं । देश तो इसलिये कहते हैं कि ये मनसे उत्पन्न होते हैं। प्रत्यक्ष इसलिये कहलाते हैं कि ये इतर इन्द्रियोंकी सहायतासे निरपेक्ष हैं । भावार्थ-अवधि और मनःपर्यय ये दो ज्ञान स्पर्शनादि इन्द्रियोंसे उत्पन्न नहीं होते हैं, केवल मनसे* उत्पन्न होते हैं इसलिये ये देश प्रत्यक्ष कहलाते हैं।
* गोमट्टसारके “ इंदियणोइंदियजोगादि पेक्खित्तु उजुमदी होदि णिखेक्खिय विउलमदी आर्हि वा हेदि णियमेण " इस गाथाकै अनुसार ऋजुमति मन:पर्यय इन्द्रिय नोइन्द्रियकी सहायतासे होता है परन्तु विपुलमति मनःपर्यय और अवधिज्ञान दोनों ही इन्द्रिय मनकी सहायतासे नहीं होते हैं । ऋजुमति ईहामतिज्ञानपूर्वक (परम्परा ) होता है । इसलिये उसमें इन्द्रिय मनकी सापेक्षता समझी गई है । पञ्चाध्यायीकारने अवधि मन:पर्यय दोनोंमें ही मनकी सापेक्षता बतलाई है । यह सब सापेक्षता बाह्यापेक्षासे है, साश्चात् तो आत्ममात्र सापेक्ष ही दोनों हैं। तथापि चिन्तनीय है।
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