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अध्याय |
सुबोधिनी टीका । यदनेकांशग्राहकमिह प्रमाणं न प्रत्यनीकतया ।
प्रत्युत मैत्रीभावादिति नयभेदाददः प्रभिन्नं स्यात् ॥ ६८२॥
अर्थ-कोई ऐसी आशंका करते हैं कि जब वस्तुके एक अंशको विषय करनेवाला नय है तो अनेक नयोंका समूह होनेपर उससे ही अनेक धर्मता प्रमाणमें आनायगी, अर्थात् प्रमाण स्वतन्त्र कोई ज्ञान विशेष न माना जाय, अनेक नयोंके समूहको ही प्रमाण कहा जाय तो क्या हानि है ? आचार्य उत्तर देते हैं कि यह आशंका किसी प्रकार ठीक सी मालूम पड़ती है तो भी ठीक नहीं है। क्योंकि अनेक नयोंके संग्रहसे जो अनेक धर्मोका संग्रह होगा वह विरुद्ध होगा। कारण नय सभी एक दूसरेसे प्रतिपक्ष धर्मोंका विवेचन करते हैं। प्रमाण जो अनेक अंशोंका ग्रहण करता है सो वह विरुद्ध रीतिसे नहीं करता है । किन्तु परस्पर मैत्रीभाव पूर्वक ही उन धर्मोको ग्रहण करता है । इसलिये नयभेदसे प्रमाण भिन्न ही है । भावार्थ—प्रत्येक नय एकर धर्मको विरुद्ध रीतिसे ग्रहण करता है, परन्तु प्रमाण वस्तुके सर्वांशोंको अविरुद्धतासे ग्रहण करता है। इसका कारण यह है कि सब अंशोंको विषय करनेवाला एक ही ज्ञान है । भिन्न २ ज्ञान ही प्रत्येक अंशको विवक्षतासे ग्रहण कर सक्ते हैं। जैसे एक ज्ञान रूपको ही जानता है, दूसरा रसको जानता है, तीसरा गन्धको जानता है, चौथा स्पर्शको जानता है। ये चारों ही ज्ञान परस्पर विरुद्ध हैं क्योंकि विरुद्ध विषयोंको विषय करते हैं, परन्तु रूप, रस, गन्ध स्पर्श, चारोंका समुदायात्मक जो एक ज्ञान होगा वह अविरुद्ध ही होगा। यही दृष्टान्त प्रमाण नयमें सुघटित करलेना चाहिये । तथा पदार्थका नित्यांश उसके अनित्यांशका विरोधी है, उसी प्रकार अनित्यांश उसके नित्यांशका विरोधी है परन्तु दोनों मिलकर ही पदार्थस्वरूपके साधक हैं। इसका कारण यही है कि प्रत्येक पक्षका स्वतन्त्र ज्ञान द्वितीय पक्षका विरोधी है परन्तु उभय पक्षका समुदायात्मक ज्ञान परस्पर विरुद्ध होता हुआ भी अविरुद्ध है।
शंकाकारननु युगपदुच्यमानं नययुग्मं तद्यथास्ति नास्तीति । एको भङ्गः कथमयमेकांशग्राहको नयो नान्यत् ॥ ६८३ ॥ अपि चास्ति न चास्तीति सममेकोक्त्या प्रमाणनाशः स्यात् अथ च क्रमेण यदि वा स्वस्य रिपुः स्वयमहो स्वनाशाय ॥६८४॥ अथवाऽवक्तव्यमयो वक्तुमशक्यात्सम स चेद्भङ्गः । पूर्वापरवाधायाः कुतः प्रमाणात्प्रमाणमिह सिद्धयेत् ॥ ६८५ ॥ इति वक्तुमयुक्तं वक्ता नय एव न प्रमाणमिह । मूलविनाशाय यतोऽवक्तरि किल चेदवाच्यतादोषः ॥ ६८६ ॥
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