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पञ्चाध्यायी।
[प्रथम
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___ अर्थ-परस्पर ज्ञान और ज्ञेयका जो बोध्यबोधरूप सम्बन्ध है, उसके कारण ज्ञानको ज्ञेयगत-ज्ञेयका धर्म मानना अथवा ज्ञेयको ज्ञानगत मानना यह भी नयाभास है । भावार्थज्ञानका स्वभाव है कि वह हरएक पदार्थको जाने परन्तु किसी पदार्थको जानता हुआ भी वह सदा अपने ही स्वरूपमें स्थिर रहता है, वह पदार्थमें नहीं चला जाता है और न वह उसका धर्म ही हो जाता है । तथा न पदार्थका कुछ अंश ही ज्ञानमें आता है, जो कोई इसके विरुद्ध मानते हैं वे नयाभास मिथ्याज्ञानसे ग्रसित हैं।
दृष्टान्तचक्षु रूपं पश्यति रूपगतं तन्न चक्षुरेव यथा ।
ज्ञानं ज्ञेयमवैति च ज्ञेयगतं वा न भवति तज्ज्ञानम् ॥५८६॥
अर्थ---जिस प्रकार चक्षु रूपको देखता है, परन्तु वह रूपमें चला नहीं जाता है । अथवा रूपका वह धर्म नहीं हो जाता है उसी प्रकार ज्ञान ज्ञेयपदार्थको जानता है परन्तु वह ज्ञान ज्ञेयमें नहीं जाता है अथवा उसका धर्म नहीं हो जाता है ।
इत्यादिकाश्च वहवः सन्ति यथालक्षणा नयाभासाः । तेषामयमुद्देशो भवति विलक्ष्यो नयानयाभासः ॥५८॥
अर्थ-कुछ नयाभासोंका ऊपर उल्लेख किया गया है, उनके सिवा और भी बहुतसे नयाभास हैं जो कि वैसे ही लक्षणोंवाले हैं। उन सब नयाभासोंका यह उद्देश्य-आशय नयसे विरुद्ध है। इसीलिये वे नयाभास कहे जाते हैं। भावार्थ-नयोंका जो स्वरूप कहा गया है उससे नयाभासोंका स्वरूप विरुद्ध है । इसलिये जो समीचीन नय है उसे नय कहते है और मिथ्या नयको नयाभास कहते हैं।
शङ्काकारननु सर्वतो नयास्ते किं नामानोथ वा कियन्तश्च । कथमिव मिथ्यार्थास्ते कथमिव ते सन्ति सम्यगुपदेश्याः ॥५८८॥
अर्थ-सम्पूर्ण नयोंके क्या २ नाम हैं और वे समस्त नय कितने हैं, तथा कैसे वे मिथ्या अर्थको विषय करनेवाले होजाते हैं और कैसे यथार्थ पदार्थको विषय करनेवाले होते हैं ? अर्थात् कैसे वे ठीक २ कहे जाते हैं और कैसे विरुद्ध कहे जाते हैं?
उत्तर: ( नयवादके भेद ) सत्यं यावदनन्ताः सन्ति गुणा वस्तुतो विशेषाख्याः। तावन्तो नयवादा वचोविलासा विकल्पाढ्याः ॥ ५८९ ॥ अपि निरपेक्षा मिथ्यास्त एव सापेक्षका नयाः सम्यक् । अविनाभावत्वे सति सामान्यविशेषयोश्च सापेक्षात् ॥५९०॥
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