Book Title: Panchadhyayi Purvardha
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Granthprakashan Karyalay Indore

View full book text
Previous | Next

Page 208
________________ अध्याय | ] 'सुबोधिनी टीका । [ १८९ भावार्थ-विना व्यवहारनयका अवलम्बन किये केवल निश्चयनयसे ज्ञानमें प्रमाणता ही नहीं आ सक्ती है। विना व्यवहारनयका अवलम्बन किये पदार्थका विचार ही नहीं हो सकताहै, यह शंका फिर भी की जा सक्ती है कि जब व्यवहारनय मिथ्या है तो उसके द्वारा किया हुआ वस्तु विचार भी मिथ्या ही होगा ? यद्यपि किसी अंशमें यह शंका ठीक हो सक्ती है, परन्तु बात यह है कि वस्तुका विचार बिना व्यवहारके हो नहीं सक्ता, बिना विवेचन किये यह कैसे जाना जासक्ता है कि वस्तु अनन्त गुणात्मक है, परिणामी है, इसलिये व्यवहार द्वारा वस्तुको जान कर सकी यथार्थताका बोध हो जाता है । दूसरे शब्दोंमें यों कहना चाहिये कि यह आत्मा व्यवहारपूर्वक ही निश्चयनय पर आरूढ़ होता है, विवेचना वस्तुकी यथार्थता नहीं है, किन्तु विवेचनाके द्वारा ही यथार्थताका बोध होता है इसलिये व्यवहार नय भी आदरणीय है। तस्मादाश्रयणीयः केषाञ्चित् स नयः प्रसङ्गत्वात्। अपि सविकल्पानामिव न श्रेयो निर्विकल्पबोधवताम् ॥६३९॥ __ अर्थ-इसलिये प्रसंगवश किन्हीं २ को व्यवहार नय भी आश्रयणीय ( आश्रय करने योग्य ) है । वह सविकल्पक बोधवालोंके लिये ही आश्रय करने योग्य है। सबिकल्पक बोधवालोंके समान निर्विकल्पक बोधवालोंके लिये वह नय हितकारी नहीं है। भावार्थसविकल्पकबोध पूर्वक जो निर्विकल्पक बोधको पा चुके हैं, फिर उन्हें व्यवहारनयकी शरण नहीं लेनी पडती है निश्चय नयकी प्राप्तिके लिये ही व्यवहारका आश्रय लेना आवश्यक है। शङ्काकारननु च समीहितसिद्धिः किल चैकस्मानयात्कथं न स्यात् । विप्रतिपत्तिनिरासो वस्तुविचारश्च निश्चयादिति चेत् ॥६४०॥ अर्थ-अपने अभीष्टकी सिद्धि एक ही नय ( निश्चय ) से क्यों नहीं हो जाती है, विवादका परिहार और वस्तुका विचार भी निश्चयसे ही हो जायगा इसलिये केवल निश्चयनय ही मान लो ? उत्तरनैवं यतोस्ति भेदोऽनिर्वचनीयो नयः स परमार्थः । तस्मात्तीर्थस्थितये श्रेयान् कश्चित् स वावदकोपि ॥ ६४१ ॥ अर्थ-ऊपर जो शंका की गई है वह ठीक नहीं है क्योंकि दोनों नयोंमें भेद है। निश्चय नय अनिर्वचनीय है, उसके द्वारा पदार्थका विवेचन नहीं किया जा सक्ता, इसलिये धर्म अथवा दर्शनकी स्थितिके लिये अर्थात् वस्तु स्वभावको जाननेके लिये कोई बोलनेवाला भी नय-व्यवहार नय हितकारी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246