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पञ्चाध्यायी।
[प्रथम
अर्थ-ठीक है, न गुणका अभाव है, न द्रव्यका अभाव है, न दोनोंका अभाव है, और न उन दोनोंके योगका अभाव है, तो भी व्यवहार नय मिथ्या ही है। क्यों मिथ्या है ? उसीको स्पष्ट करते हैं
इदमत्र निदानं किल गुणवद्रव्यं यदुक्तमिह सूने। अस्ति गुणोस्ति द्रव्यं तद्योगात्तदिह लब्धमित्यर्थात् ॥६३४॥ तदसन्न गुणोस्ति यतो न द्रव्यं नोभयं न तद्योगः । केवलमद्वैतं सद्भवतु गुणो वा तदेव सद्रव्यम् ॥६३५॥
अर्थ-व्यवहारनय मिथ्या है, इसमें यह कारण है कि जो सूत्रमें ‘गुणवद्रव्यम्' कहा गया है, उसका यह अर्थ निकलता है कि एक कोई गुण पदार्थ है एक द्रव्य पदार्थ है, उन दोनोंके योगसे द्रव्य सिद्ध होता है। परन्तु ऐसा कथन ही मिथ्या है । क्योंकि न कोई गुण है, न द्रव्य है, न दोनों हैं, और न उनका योग ही है, किन्तु केवल अद्वैत सत् है, वही सत् गुण कहलाओ अथवा वही सत् द्रव्य कहलाओ । कुछ कहलाओ ।
व्यवहारनय मिथ्या है-- तस्मान्यायागत इति व्यवहारः स्यान्नयोप्यभूतार्थः ।
केवलमनुभवितारस्तस्य च मिथ्यादृशो हतास्तेपि ॥ ६३६ ॥
अर्थ-इसलिये यह बात न्यायसे प्राप्त हो चुकी कि व्यवहारनय अभूतार्थ है । जो लोग केवल उसी व्यवहारनयका अनुभव करते रहते हैं वे नष्ट हो चुके हैं, तथा वे मिथ्यादृष्टि हैं।
शंकाकार--- ननु चैवं चेनियमादादरणीयो नयो हि परमार्थः । किमकिञ्चित्कारित्वाव्यवहारेण तथाविधेन यतः ॥ ६३७ ॥
अर्थ-यदि व्यवहारनय मिथ्या ही है तो केवल निश्चयनय ही आदरणीय होना चाहिये । व्यवहारनय मिथ्या है इसलिये कुछ भी करनेमें असमर्थ है, फिर उसे सर्वथा कहना ही नहीं चाहिये ?
उत्तर-वस्तु विचारार्य व्यवहारनय भी आवश्यक हैनैवं यतो बलादिह विप्रतिपत्तौ च संशयापत्तौ।
वस्तुविचारे यदि वा प्रमाणमुभयावलम्बि तज्ज्ञानम् ॥६३८॥
अर्थ-ऊपरकी शंका ठीक नहीं है, कारण किसी विषयमें विवाद होने पर अथवा किसी विषयमें संदेह होनेपर अथवा वस्तुके विचार करनेमें व्यवहारनयका अवलम्बन बलपूर्वक ( अवश्य ही) लेना पड़ता है। जो ज्ञान निश्चयनय और व्यवहारनय दोनोंका अवलम्बन करता है वही ज्ञान प्रमाणज्ञान समझा जाता है।
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