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१८६ ] पञ्चाध्यायी।
[प्रथम अर्थ-यदि विशेषण रहित विशेष्य ही केवल निश्चय नयका विषय माना जाय तो द्रव्य और गुणकी ही सिद्धि होगी, पर्यायकी सिद्धि नहीं होगी, अथवा व्यवहारका ही लोप हो जायगा । यह एक बड़ा दोष है।
सारांशतस्मादवसेयमिदं यावदुदाहरणपूर्वको रूपः । तावान् व्यवहारनयस्तस्य निषेधात्मकस्तु परमार्थः ॥ ६२५॥
अर्थ-इसलिये यह निश्चय करना चाहिये कि जितना भी उदाहरण पूर्वक कथन है उतना सब व्यवहार नय है। उस व्यवहारका निषेधक ही निश्चय नय है ।
शंकाकारननु च व्यवहारनयो भवति च निश्चयनयो विकल्पात्मा । कथमाद्यः प्रतिषेध्योऽस्त्यन्यः प्रतिषेधकश्च कथमिति चेत् ॥६२६॥
अर्थ-व्यवहार नय भी विकल्पात्मक है और निश्चय नय भी विकल्पात्मक है फिर व्यवहार नय क्यों निषेध करने योग्य है, तथा निश्चय नय क्यों उसका निषेध करनेवाला है ? भावार्थ-जब दोनों ही नय विकल्पात्मक हैं तो एक निषेध्य और दूसर निषेधक उनमें कैसा ?
उत्तरन यतो विकल्पमात्रमर्थाकृतिपरिणतं यथा वस्तु ।
प्रतिषेध्यस्य न हेतुश्चेदयथार्थस्तु हेतुरिह तस्य ॥ ६२७ ॥
अर्थ-उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है, क्योंकि हरएक वस्तुमें उस वस्तुके अनुरूप अकार परिणमन करनेवाले ज्ञानको ही विकल्प कहते हैं। वह विकल्प प्रतिषेध्यका हेतु नहीं है, किन्तु उसका कारण अयथार्थता है । भावार्थ-व्यवहार नयके निषेधका कारण विकल्पात्मक बोध नहीं है विकल्पात्मक बोध तो निश्चय नयमें भी है किन्तु उसका अयथार्थ बोध है, अर्थात् व्यवहार नय मिथ्या है इसी लिये वह निषेध करने योग्य है । इसी वातको नीचे स्पष्ट करते हैं।
व्यवहारः किल मिथ्या स्वयमपि मिथ्योपदेशकश्च यतः। प्रतिषेध्यस्तस्मादिह मिथ्यादृष्टिस्तदर्थदृष्टिश्च ॥ ६२८ ॥
अर्थ-व्यवहार नय मिथ्या है क्योंकि वह स्वयं ही मिथ्या उपदेश देता है । इसलिये वह प्रतिषेध्य निषेध करने योग्य है और उस व्यवहार नयके विषय पर दृष्टि देनेवालाश्रदान करनेवाला भी मिथ्यादृष्टि है।
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