Book Title: Panchadhyayi Purvardha
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Granthprakashan Karyalay Indore

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Page 198
________________ सुबोधिनी टीका । द्रव्यार्थिक नयका स्वरूप । व्यवहारः प्रतिषेध्यस्तस्य प्रतिषेधकश्च परमार्थः । व्यवहारप्रतिषेधः स एव निश्चयनयस्य वाच्यः स्यात् ॥५९८॥ अर्थ-व्यवहार प्रतिषेध्य है अर्थात् निषेध करने योग्य है, उसका निषेध करनेवाला निश्चय है । इसलिये व्यवहारका निषेध ही निश्चय नयका वाच्य - अर्थ है । भावार्थ-जो कुछ भी व्यवहार नयसे कहा जाता है वह सब हेय - छोड़ने योग्य है । कारण जो कुछ व्यवहार नय कहता है वह पदार्थका स्वरूप नहीं है, पदार्थ अभिन्न- अखण्ड - अवक्तव्यरूप है । व्यवहार नय उसका भेद बतलाता है । पदार्थ अनन्त गुणात्मक हैं, व्यवहार नय उसे किसी विवक्षित गुणसे विवेचित करता है । पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है, व्यवहार नय उसे अंशरूपसे ग्रहण करता है, इसलिये जो कुछ भी व्यवहार नयका विषय है वह सब निषेध करने योग्य है वह निषेध ही निश्चय नयका विषय है । जैसे - व्यवहार नय गुणगुणीमें भेद बतलाता है निश्चय नय कहता है कि 'ऐसा नहीं है ' । व्यवहार नयमें जो कुछ विषय पड़ता है उसका निषेध करना ही निश्चय नयका वाच्यार्थ है । अध्याय । ] दृष्टान्त व्यवहारः स यथा स्यात्सद्द्रव्यं ज्ञानवांश्च जीवो वा । नेत्येतावन्मात्रो भवति स निश्वयनयो नयाधिपतिः ॥५९९॥ अर्थ-व्यवहार नय विवेचन करता है अथवा जानता है कि द्रव्य सत्रूप है, निश्चय नय बतलाता है कि नहीं । व्यवहार नय बतलाता है कि जीव ज्ञानवान् है, निश्चय नय बतलाता है कि नहीं। इस प्रकार न- निषेधको विषय करनेवाला ही निश्चय नय है, और वही सब नयोंका शिरोमणि है । भावार्थ-व्यवहार नयने द्रव्यको सत्स्वरूप बतलाया है, परन्तु निश्चय नय इसका निषेध करता है कि नहीं, अर्थात् पदार्थ ऐसा नहीं है । कारण - सत्नाम अस्तित्व गुणका है, पदार्थ केवल अस्तित्व गुण स्वरूप तो नहीं है किन्तु अनन्त गुणात्मक है इसलिये पदार्थको सदात्मक बतलाना ठीक नहीं है । इसीलिये निश्चय नय उसका निषेध करता है। इसी प्रकार जीवको ज्ञानवान् कहना यह भी व्यवहार नयका विषय है | निश्चय नय इसका निषेध करता है कि नहीं, अर्थात् जीव ऐसा नहीं है, क्योंकि जीव अनन्तगुणोंका अखण्ड पिण्ड है, इसलिये वे अनन्तगुण अभिन्न प्रदेशी हैं। अभिन्नता में गुणगुणीका भेद करना ही मिथ्या है इसलिये निश्चय नय उसका निषेध करता है । निश्चय नय व्यवहारके समान किसी पदार्थका विवेचन नहीं करता है किन्तु जो कुछ व्यवहार नयसे विवेचन किया जाता है अथवा भेदरूप जाना जाता है उसका निषेध करता है । यदि वह भी किसी विषयका विवेचन करे तो वह भी मिथ्या ठहरेगा । कारण - जितना भी विवे Jain Education International [ १७९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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