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पञ्चाध्यायी ।
[ प्रथम
बोध नहीं होना चाहिये। किंतु उसके एक अंशका ही बोध होना चाहिये । परन्तु ऐसा बोध नहीं होता है । इसलिये किसी वस्तु पर विचार करनेसे वह वस्तु अभिन्न गुणमय एक रसमय ही प्रतीत होती है । ऐसी प्रतीतिसे गुणोंमें अखण्डता अभिन्नताभी सुघटित ही है । गुणोंकी अभिन्नता में विवक्षित गुणके अन्तर्गत इतर सब गुणोंका होना भी स्वयं सिद्ध है ।
सारांश
तस्मादनवद्यमिदं भावेनाखण्डितं सदेकं स्यात् ।
तदपि विवक्षावशतः स्यादिति सर्वे न सर्वथेति नयात् ॥४९२ ॥ अर्थ - उपर्युक्त कथनसे यह बात निर्दोष रीतिसे सिद्ध हो चुकी कि भावकी अपेक्षासे सत् अखण्डित एक है । इतना विशेष समझना चाहिये कि वह सत्की एकता विवक्षाके 1 आधीन है । सर्वथा एकता उसमें असिद्ध ही है, क्योंकि वस्तुमें एकता और अनेकता किसी नय विशेषेसे सिद्ध होती है ।
एवं भवति सदेकं भवति न तदपि च निरंकुशं किन्तु । सदनेकं स्यादिति किल समति यथा प्रमाणाद्वा ॥ ४९३ ॥ अर्थ- सत् एक है परन्तु वह सर्वथा एक नहीं है । उसका प्रतिपक्ष भी प्रमाण सिद्ध है इसलिये वह निश्चयसे अनेक भी है ।
अपि च स्यात्सदनेकं तद्द्द्रव्यावैरखण्डितत्त्वेपि । व्यतिरेकेण विना यन्नान्वयपक्षः स्वपक्षरक्षार्थम् ॥ ४९४ ॥
अर्थ - यद्यपि सत् द्रव्य गुण, पर्यायोंसे अखण्ड है तथापि वह अनेक है क्योंकि बिना व्यतिरेकपक्ष स्वीकार किये अन्वयपक्ष भी अपनी रक्षा नहीं कर सक्ता है । भावार्थ:विना कथंचित् भेदपक्ष स्वीकार किये अभेदपक्ष भी नहीं सिद्ध होता । उभयात्मक ही वस्तुस्वरूप है । अव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव चारों हीसे वस्तुमें भेद सिद्ध किया जाता है।
द्रव्य विचार----
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अस्ति गुणस्तलक्षणयोगादिह पर्वयस्तथा च स्यात् । तदनेकत्वे नियमात्सदनेकं द्रव्यतः कथं न स्यात् ॥ ४९५ ॥
अर्थ - गुणों का लक्षण भिन्न है, पर्यायका लक्षण भिन्न है । गुण पर्यायोंकी अनेकता द्रव्यकी अपेक्षासे सत् अनेक क्यों नहीं है ? अर्थात् भेद विवक्षासे सत् कथंचित् अनेक भी है।
' अन्वयिनो गुणाः व्यतिशेकणः पर्यायाः अर्थात् गुण सहभागी हुआ करते हैं । पर्यायें कमभावी हुआ करती हैं। दोनों में यही लक्षण भेद है ।
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