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पश्चाध्यायी।
[प्रथम
अर्थ---एक एक प्रतिनियित वस्तु धर्मको वस्तुसे विशिष्ट देखकर उस धर्म विशिष्ट वस्तुकी उसी नामसे संज्ञा-नामकरण करना भी नय है । ऐसा ज्ञान भी नयात्मक है और वचन भी नयात्मक ही उपचार है।
दृष्टान्तअथ तद्यथा यथारोष्ण्यं धर्म समक्षतोऽपेक्ष्य ।
उष्णाग्निरिति वागिह तज्ज्ञानं वा नयोपचारः स्यात् ॥१४॥
अर्थ-जैसे अग्मिका उष्णधर्म सामने देखकर किसीने कहा कि 'अग्नि उष्ण है, यह वचन नयरूप है और उस वचनका वाच्यरूप बोध भी नयात्मक है । भावार्थ-अग्निमें दीपन, पाचन, प्रकाशन, गलाना, उष्णता आदि अनेक गुण हैं। परन्तु किसी विवक्षित धर्मसे जब वह कही जाती है तब वह अग्नि उतनी मात्र ही समदी जाती है । इसी प्रकार जीवको ज्ञानी कहने पर उसमें अनेक गुण रहते हुए भी वह ज्ञानमय ही प्रतीत होता है । इसलिये यह सब कथन तथा ऐसा ज्ञान नयाप ही है।
इह शिल छियादा स्या परशुः स्वतन्त्र एव यथा।
न तथा नीदिश करोति वस्तुबलात् ॥५१५॥
अध-जिस प्रकार छेदनक्रियाका कारण फरसा छेदनक्रियाके करनेमें स्वतंत्र रीतिसे चलाया जाता है । उस प्रकार नय स्वतन्त्र रीतिमे वस्तुको किसी धर्मसे विशिष्ट नहीं समझता है और न कहता ही है । भावार्थ-----फरसाके चलनेमें यह आवश्यक नहीं है कि वह किसी दूसरे हथियार ( स्त्र) की अपेक्षा रखकर ही छेदनक्रियाको करै, परन्त नयका प्रयोग खतन्त्र नहीं हो सका है । विना किसी अपेक्षाविशेषके नयप्रयोग नहीं हो सक्ता है । नय प्रयोगमें अपेक्षा विशेष तथा प्रतिपक्ष नयकी सापेक्षता आवश्यक है । इसीलिये छेदन क्रियामें फरसाके समान नय स्वतन्त्र नहीं, किन्तु विवक्षा और प्रतिपक्ष नयसे वह परतन्त्र है । जो नय विना अपेक्षाके और प्रतिपक्ष नयकी सापेक्षताके प्रयोग किया जाता है उसे नय ही नहीं कहना चाहिये अथवा मिथ्या नय कहना चाहिये ।
न्य भेट..एकः सर्वोधिनयों भति विकल्पाविशेषतोपि नयात् ।
अपि च हिनिधास यथा स्वविषय भेदे विकल्पदैविध्यात् ।५१६॥
अर्थ-विकल्पात्मक ज्ञानको ही नय कहते हैं कोई नय क्यों न हो, विकल्पात्मक ही होगा इसलिये विकल्पकी अविशेषता होनेसे सभी नय एक हैं । सभी नयोंकी एकताका विकल्पसामान्य ही हेतु है । विषय की अपेक्षा होनेपर वह नय दो प्रकार भी है । विषयभेदसे विकल्पभेद-विकल्पहविष्यका होना भी आवश्यक है और विकल्पद्वैविध्यमें नयद्वैविध्यका होना भी आवश्यक है।
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