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पञ्चाध्यायी ।
मान्य गुणोंको गौण रखता हुआ उसके विशेष गुणोंका ही विवेचक है ।
इस नयसे होनेवाला फल
अस्यावगमे फलमिति तदितरवस्तुनि निषेधबुद्धिः स्यात् । इतरविभिन्नो नय इति भेदाभिव्यञ्जको न नयः ॥ ५२७ ॥
अर्थ- सद्भूत व्यवहार नयके समझने पर एक पदार्थसे दूसरे पदार्थ में निषेध बुद्धि हो जाती है अर्थात् एक पदार्थसे दूसरा पदार्थ जुदा ही प्रतीत होने लगता है यह सद्भूत व्यवहार नय एक पदार्थकी दूसरे पदार्थ से भिन्न प्रतीति करानेवाला है । एक ही पदार्थ में भिन्नताका सूचक नहीं हैं । भावार्थ - सद्भूत व्यवहारनय वस्तुके विशेष गुणोंका विवेचन करता है इसलिये वह वस्तु अपने विशेष गुणों द्वारा दूसरी वस्तुसे भिन्न ही प्रतीत होने लगती है । जैसे जीवका ज्ञान गुण इस नय द्वारा विवक्षित होनेपर वह जीवको इतर पुद्गल आदि द्रव्योंसे भिन्न सिद्ध कर देता है । ऐसा नहीं है कि जीवको उसके गुणोंसे ही जुदा सिद्ध करता हो ।
[ प्रथम
वस यही इस नयका फल है
अस्तमितसर्वसङ्करदोषं क्षतसर्वशून्यदोषं वा ।
अणुरिव वस्तुसमस्तं ज्ञानं भवतीत्यनन्यशरणमिदम् ||५२८||
अर्थ-- सद्भूत व्यवहार नयसे बस्तुका यथार्थ परिज्ञान होनेपर वह सब प्रकार के संकर * दोषोंसे रहित - सबसे जुदी, सब प्रकारके शून्यता - अभाव आदि दोषोंसे रहित, समस्त ही वस्तु परमाणुके समान (अखण्ड) प्रतीत होती है। ऐसी अवस्थामें वह उसका शरण वही दीखती है । भावार्थ - इस नय द्वारा जब वस्तु उसके विशेष गुणोंसे भिन्न सिद्ध हो जाती है, फिर उसमें संकर दोष नहीं आसक्ता है। तथा गुणका परिज्ञान होने पर उसमें शून्यता, अभाव आदि दोष भी नहीं आसक्ते हैं, क्योंकि उसके गुणोंकी सत्ता और उनकी नित्यताका परिज्ञान उक्त दोनों दोषोंका विरोधी है तथा जब वस्तुके (सामान्य भी) गुण उसमें ही दीखते हैं उससे बाहर नहीं दीखते, तब वस्तु परमाणुके समान उसके गुणोंसे अखण्ड प्रतीत होती है । इतने बोध होनेपर ही वस्तु अनन्य शरण प्रतीत होती है ।
* सर्वेषां युगपत्प्राप्तिः सङ्करः, येन रूपेण सच्वं तेन रूपेणाऽसत्वस्यापि प्रसंग: । येनरूपेण चाऽसत्वं तेन रूपेण सत्वस्यापि प्रसङ्गः इतिः सङ्करः । सप्तभंगी तरङ्गिणी । अर्थात् परस्पर पदार्थों मिलनेer नाम ही संकर है ।
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