________________
पञ्चाध्यायी।
[प्रथम
-
- munmurarmhonemurenc~
यहां पर इतना ही तात्पर्य है कि जो सोनेका पीत गुण है उसके गुरुत्व आदिक गुण अन्तर्भूत हैं इसलिये सोना केवल गुरुत्वगुणके द्वारा भी कहा जाता है । भावार्थ-सोनेके पीतत्व, गुरुत्व, स्निग्धत्व, आदि सभी गुणोंमें तादात्म्य है। वे सब अभिन्न हैं, इसलिये विवक्षित गुण प्रधान हो जाता है वाकीके सब उसीके अन्तर्लीन हो जाते हैं । सोना उस समय विवक्षित गुणरूप ही सब ओरसे प्रतीत होता है ।
ज्ञानत्वं जीवगुणस्तदिह विवक्षावशात्सुखत्वं स्यात् ।
अन्तलीनत्वादिह तदेकसत्त्वं तदात्मकत्वाच ॥ ४८९॥ ___ अर्थ.--.-'जीवका जो ज्ञान गुण है, वही विवक्षावश सुखरूप हो जाता है, क्योंकि सुख गुण ज्ञान गुणके अन्तर्लीन ( भीतर छिपा हुआ) रहता है । इसलिये विवक्षा करने पर ज्ञान सुखरूप ही प्रतीत होने लगता है। जिस समय जीवको सुख गुणसे विवक्षित किया जाता है, उस समय वह सुखस्वरूप ही प्रतीत होता है। उस समय जीवके ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य आदि सभी गुणोंकी सुख स्वरूप ही एक सत्ता प्रतीत होती है।
शंकाकारननु निर्गुणा गुणा इति सूत्रे सूक्तं प्रमाणतो वृद्धः।
तर्मिक ज्ञानं गुण इति विवक्षितं स्यात्सुखत्वेन ॥ ४९०॥
अर्थ--सूत्रकार-पूर्वमहर्षियोंने गुणोंका लक्षण बतलाते हुए उन्हें निर्गुण बतलाया है, ऐसा सूत्रभी है-' द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ' और यह बात सप्रमाण सिद्ध की गई है, फिर किस प्रकार जीवका ज्ञान गुण सुख रूपसे विवक्षित किया जा सक्ता है ?
भावार्थ-जव एक गुणमें दूसरा गुण रहता ही नहीं है ऐसा सिद्धान्त है तब ज्ञानमें सुखकी अंतर्लीनता अथवा सुरखमें ज्ञानकी अन्तलीनता यहां पर क्यों वतलाई गई है।
उत्तर-- सत्यं लक्षणभेदाद्गुणभेदो निर्विलक्षणः स स्यात् ।
तेषां तदेकसवादग्वण्डितत्त्वं प्रमाणतोऽध्यक्षात् ॥ ४९१॥
अर्थ-ठीक है, परन्तु बात यह है कि गुणोंमें जो भेद है वह उनके लक्षणोंके भेदसे है । वह ऐसा भेद नहीं है कि गुणोंको सर्वथा जुदा २ सिद्ध करनेवाला हो । उन जैसे भिन्न सत्तावाला स्वतन्त्र है वैसे गुण भी भिन्न सत्तावाला स्वतन्त्र होना चाहिये । जब दोनों ही स्वतन्त्र हैं तो एक गुण दूसरा गुणी यह व्यवहार कैसे होसता है ? दूसरी बात यह भी है कि जब गुण द्रव्यसे सर्वथा जुदे हैं ता वे जिस प्रकार समवाय सम्बन्धसे एक द्रव्यके साथ रहते है उस प्रकार किसी अन्य द्रव्य के साथ भी रह सक्तते हैं, फिर अमुक द्रव्यका हो अमुक गुण है अथवा अमुक गुण अमुक द्रव्य में ही रहता है, इस प्रतीतिका सर्वथा लोप होजायगा। इन दूषणों के सिवा और भी अनेक दूषण गुण गुणीको सर्वथा भेद माननमें आते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org