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मध्या
सुबोधिनी टीका। होता है । अर्थात् उसमें न तो कोई गुण कहीं चला जाता है और न कोई कहींसे आजाता है । वह जितना है सदा उतना ही रहता है।
पर शिवजन--- अयमर्थी वस्तु मा विवक्षितकभावेन । तन्मात्रं सदिति स्थात्सन्मात्रः स च विवक्षितो भावः॥४८४॥ यदि पुनरन्तरेण हि भावेन विवक्षितं सदेव स्यात् ।
तन्मानं समिति स्वालमात्र स च विवक्षितो भावः ॥४८॥
अर्थ ---जिस समय जिस विवक्षित भावसे वस्तु कही जाती है, उस समय वह उसी भावमय प्रतीत होती है, और वह विवक्षित भाव भी मत्सरूप प्रतीत होता है, यदि किसी दूसरे भावसे वस्तु विवक्षित की जाती है तो वह उसी भावमय प्रतीत होती है और वह विवक्षित भाव भी उसी रूप ( सत्ता छाप ) प्रतीत होता है । भावार्थ-जिस समय जिस भावकी विवक्षा की जाती है, उस समय सम्पूर्ण वस्तु उसी भावरूप प्रतीत होती है वाकीके सब गुण उसीके अंतर्लीन हो जाते हैं। इसका कारण भी उनका तादात्म्य भाव है।
इष्टन्त..
अत्रापि च संशष्ठिः जनकः पीतादिमानिहास्ति यथा । पीतेग पीतमात्री भवति शुरुत्यादिना च तन्मात्रः ॥४८६॥ न च किश्चित्पीतत्व किञ्चिस्निग्धत्वमस्ति गुरुता च । तेषामिह समयावादनि खुवर्णस्ति उत्पलत्ताः ॥४८७॥ इसमत्र तु तात्पर्य यतिवणः सुवर्णस्य ।
अन्तलीनशुभत्वादि लक्ष्यते नरुत्वेन ॥४८८॥
अर्थ-वस्तु जिस भावसे विवक्षित की जाती है उसी भावमय प्रतीत होती है, इस विषयमें सुवर्ण (सोना)का दृष्टान्त भी है सुवर्णमें पीलापन भारीपन, चमकीलापन आदि अनेक गुण हैं । जिस समय वह पीत गुणसे विवक्षित किया जाता है उस समय वह पीत मात्र ही प्रतीत होता है। तथा जिस समय वह सुवर्ण गुरुत्व गुणने विवक्षित किया जाता है उस समय वह गुरु रूप ही प्रतीत होता है । ऐसा नहीं है कि उस सोनेमें कुछ तो पीतिमा हो, कुछ स्निग्धता हो, और कुछ गुरुता हो, और उन सबके समवायसे तीन सत्ताओंवाला एक सोना कहलाता हो । *
___* न्यायदर्शन, गुण गुणोका सयाद मानता है । साने नोपन, भार पन आदि गुण हैं उन्हें वह सेनेसे रुवथा जु: हो मानता है, और प्रत्येक गुणकी भिन्न २ सत्ता भी मानता है, परन्तु जैसा उस मानना सर्व वा धत है , जब प्रत्येक गुणकी भिन्न भिन्न सत्ता है तो गुण द्रव्य कहलाना चाहिये । क्योंकि द्रव्य
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