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सुबोधिनी टीका ।
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अर्थ- जब पदार्थमें पहले २ भावका नाश होता जाता है तो अवश्य ही पदार्थकी
हानि (न्यूनता) होती है, और जब तो अवश्य ही उसकी वृद्धि होती है ?
उत्तरोत्तर - नवीन भावोंका उसमें उत्पाद होत्ता रहता है
उतर-
नैवं सतो विनाशादसतः सर्गादसिसिद्धान्तात् । सदनन्यथाथ वा चेत्सदनित्यं कालतः कथं तस्य ॥ ४७६ ॥ अर्थ --- उपर्युक्त कहना ठीक नहीं है, यदि पदार्थकी हानि और वृद्धि होने लगे तो सत्पदार्थका विनाश और असत्का उत्पाद भी स्वयं सिद्ध होगा और ऐसा सिद्धान्त सर्वथा असिद्ध है अथवा यदि पदार्थको सर्वथा एकरूपमें ही मान लिया जाय, उसमें उत्पाद व्यय धौव्य न माना जाय तो ऐसा माननेवालेके यहां कालकी अपेक्षासे सत् अनित्य किस प्रकार सिद्ध होगा ? अर्थात् विना परिणमन स्वीकार किये पदार्थ में अनित्यता भी कालकी अपेक्षासे नहीं
है।
नासि मनित्यत्वं सतस्ततः कालतोप्यनित्यस्य । परिणामित्वान्नियतं सिद्धं तज्जलधरादिदृष्टान्तात् ॥ ४७७ ॥
अर्थ - पदार्थ कथञ्चित् अनित्य है यह बात असिद्ध भी नहीं है। कालकी अपेक्षासे वह सदा परिणमन करता ही रहता है, इसलिये उसमें कथंचित् अनित्यता स्वयं सिद्ध है । इस विषय में मेघ - बिजली आदि अनेक दृष्टान्त प्रत्यक्ष सिद्ध हैं ।
सारांश
तस्मादनवद्यमिदं परिणममानं पुनः पुनः सदपि ।
स्यादेकं कालादपि निजप्रमाणादखण्डिता ॥ ४७८ ॥
अर्थ — उपरके कथनसे यह बात निर्दोष रीतिसे सिद्ध होती है कि सत् बार बार परिणमन करता हुआ भी कालकी अपेक्षासे वह एक है, क्योंकि उसका जितना प्रमाण (परिमाण) है, उससे वह सदा अखण्ड रहता है । भावार्थ- पुनः पुनः परिणमनकी अपेक्षा तो सत्में अनेकत्व आता है, तथा उसमें अखण्ड निजरूपकी अपेक्षा एकत्व आता है । इसलिये कालकी अपेक्षासे सत् कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य अथवा कथंचित् एक और कथंचित् अनेक सिद्ध हो चुका ।
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भाव-विचार
भावः परिणाममयः शक्तिविशेषोऽथवा स्वभावः स्यात् । प्रकृतिः स्वरूपमात्रं लक्षणमिह गुणश्च धर्मश्च ॥ ४७९ ॥
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