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पञ्चाध्यायी।
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अर्थ-भाव, परिणाम, शक्ति, विशेष, स्वभाव, प्रकृति, स्वरूप, लक्षण, गुण, धर्म ये सब भावके ही पर्यायवाचक हैं ।
तेनाखण्डतया स्थादेकं सच्चैकदेशनययोगात्।
तल्लक्षणमिदमधुना विधीयते सावधानतया ॥ ४८०॥
अर्थ-उस भावसे सत् अखण्ड है । इसलिये एक देश नयसे (गुणोंकी अखण्डताके कारण) वह कथंचित् एक है । भावकी अपेक्षासे सत् एक है । इस विषयका लक्षण (खरूप) सावधानीसे इस समय कहा जाता है ----
सधै सदिति यथा स्यादिह संस्थाप्य गुणपंक्तिरूपेण ।
पश्यन्तु भावसादिह निःशेषं सन्नशेषमिह किञ्चित् ।। ४८१ ॥
अर्थ---सम्पूर्ण सत्को गुणोंकी पंक्तिरूपसे यदि स्थापित किया जाय तो उस सम्पूर्ण सत्को आप भावरूप ही देखेंगे, भावों (गुणों) को छोड़कर सत्में और कुछ भी आपकी दृष्टिमें न आवेगा । भावार्थ-सत् गुणका समुदाय रूप है, इसलिये उसे यदि गुणोंकी दृष्टि से देखा जाय तो वह गुण-भावरूप ही प्रतीत होगा । उस समय गुणोंके सिवा उसका भिन्न रूप कुछ नहीं प्रतीत होगा । जैसे स्कन्ध, शाखा, डाली, गुच्छा, पत्ते, फल, फूल आदि वृक्षके अवयवोंको अवयव रूपसे देखा जाय तो फिर समग्र वृक्ष अवयव खरूप ही प्रतीत होता है । अवयवोंसे भिन्न वृक्ष कोई वस्तु नहीं ठहरता है। क्योंकि अवयक्समुदाय ही तो वृक्ष है । वैसे ही एक द्रव्यके-द्रव्यत्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशवत्व, अगुरुलधुत्व, अस्तित्व, ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, रूप, रस, अमूर्तित्व आदि गुणोंको गुण रूपसे देखा जाय तो फिर उनसे भिन्न द्रव्य कोई पदार्थ शेष नहीं रह जाता है। क्योंकि गुणसमुदाय ही तो द्रव्य है इसलिये भावकी विवक्षामें पदार्थ भावमय ही है।
एकं तत्रान्यतरं भावं समपेक्ष्य यावदिह सदिति। सर्वानपि भावानिह व्यस्तप्तमस्तानपेक्ष्य सत्तावत् ॥४८२ ॥
अर्थ-उन सम्पूर्ण भावों (गुणों) में से जब किसी एक भावकी विवक्षा की जाती है तो संपूर्ण सत् उसीरूप (तन्मय) प्रतीत होता है । इसी प्रकार भिन्न २ भावोंकी अथवा समस्त भावोंकी विवक्षा करनेसे सत् भी उतना ही प्रतीत होता है।
न पुनर्यणुकादिरिति स्कन्धः पुद्गलमयोऽस्त्यणूनां हि ।
लघुरपि भवति लघुत्वे सति च महत्व महानिहास्ति यथा ।४८३। अर्थ---जिस प्रकार पुद्गलमय व्यणुकादि स्कन्ध परमाणुओंके कम होनेसे छोटा और उनके अधिक होनेपर बड़ा हो माता है, उस प्रकार सतमें छोटापन और बड़ापन नहीं
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