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‘पञ्चाध्यायी।
[प्रथम
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उभयथा-अविरुद्ध हैन विरुद्धं क्रमवर्ति च सदिति तथाऽनादितोपि परिणामि।
अक्रमवर्ति सदित्यपि न विरुद्धं सदैकरूपत्वात् ॥ ४१७ ॥
अर्थ-सत् क्रमवर्ती क्रमसे परिवर्तनशील है, यह वात भी विरुद्ध नहीं है। क्योंकि वह अनादिकालसे परिणमन करता आया है तथा वह सत् अक्रमवर्ती है, यह बात भी विरुद्ध नहीं है क्योंकि परिवर्तनशील होने पर भी वह सदा एकरूप ही रहता है। भावार्थ:द्रव्य अनन्त गुणोंका समूह है, उन सब गुणोंके कार्य भी भिन्न २ हैं। उनमें एक द्रव्यत्व गुण भी है उस गुणका यह कार्य है कि द्रव्य सदा परिणमन करता रहे, कभी भी परिणाम रहित न हो । द्रव्यत्व गुणके निमित्तसे द्रव्य सदा परिणमन करता रहता है, परन्तु परिणमन करते हुए भी एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप कभी नहीं हो सक्ता, अर्थात् जीव द्रव्य पुद्गलरूप अथवा पुद्गल द्रव्य जीवरूप कभी नहीं हो सक्ता, ऐसा क्यों नहीं होता ? इसका उत्तर यह है कि उन्हीं गुणोंमें एक अगुरुलघु नामा भी गुण है उसका यह कार्य है कि कोई भी द्रव्य परिणमन अपने स्वरूपमें ही करै, एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप कभी न हो, एक गुण भी दूसरे गुणरूप न हो, तथा एक द्रव्यके अनन्त गुण जुदे २ न विखर जांय किन्तु तादात्म्यरूपसे बने रहें। इसप्रकार द्रव्य क्रमवर्ती-अक्रमवर्ती, नित्य-अनित्य, भि-अभिन्न, एक-अनेक, उभय-अनुभय, पृथक्-अष्टथक् आदि अनेक धर्मवाला विवक्षासे सिद्ध होता है।
शङ्ककार-- ननु किमिह जगदशरणं विरुद्धधर्मद्वयाधिरोषत्वात् । स्वयमपि संशयदोलान्दोलित इव चलितप्रतीतिः स्यात् ।४१८॥ इह कश्चिजिज्ञासुर्नित्यं सदिति प्रतीयमानोपि। सदनित्यमिति विपक्षेसति शल्ये स्यात्कथं हि निशल्यः।४१९॥ इच्छन्नपि सदनित्यं भवति न निश्चितमना जनः कश्चित् । जीववस्थत्वादिह सन्नित्यं तबिरोधिनोऽध्यक्षात् ॥४२०॥ तत एव दुरधिगम्यो न श्रेयान् श्रेयसे घनेकान्तः ।
अप्यात्ममुखदोषात् सव्यभिचारो यतो चिरादिति चेत् ।४२१॥
अर्थ-क्या एक द्रव्यमें दो विरोधी धर्म रह सक्ते हैं ? यदि उपरके कथनानुसार रह सक्ते हैं तब तो इस जगत्में कोई भी शरण नहीं रहेगा। सर्वत्र ही विरुद्ध धर्म उपस्थित
रहेंगे। ऐसी विरुद्धतामें कोई भी पदार्थोके समझनेकी इच्छा रखनेवाला-जिज्ञासु कुछ निश्चय नहीं कर सकेगा किन्तु वह स्वयं संशयरूपी झूलेमें झूलने लगेगा, क्योंकि वह जिस समय सत्-वस्तुको नित्य समझेगा उसी समय उसको नित्यताकी विरोधिनी अनित्यता भी उसमें
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