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सुबोधिनी टीका। कर अनवस्था शून्यता आदि अनेक दोष भी स्वयं उपस्थित हो जाओंगे जो कि पदार्थमात्रको इस नभोमण्डलमें नहीं ठहरने देंगे।
सर्वथा भिन्नता भी प्रयोजक नहीं है-- नात्र प्रयोजक समिनिजाभोगदेशमात्र त्वम् ।
तदनन्यथात्वतिडी सड्ने क्षेत्रतः कथं स्थाबा ॥ ४५७ ॥
अर्थ-यहां पर यह भी प्रयोजन नहीं है कि सत् जितने देश (यहां पर देशसे तात्पर्य आकाशकी अपेक्षासे है ।) में रहता है उसका नियमित उतना ही देश कहा जाय, यदि ऐसा ही कहा जाय और सत्में अन्यथापना न माना जाय तो क्षेत्रकी अपेक्षासे सत् अनेक किसप्रकार सिद्ध होगा ?
आधका और उसका उत्तर-- सदनेक देशातानुपसंहासत्मसर्पणादिति चेत् । न यतो नित्यविभूनां व्योमादीनां न तद्धि तदयोगात् ॥४५८॥ अपि परमाणोरिह या सामोरेकदेशमानत्वात् । कथमिव सदनेक स्याहालपणाभाधात् ॥ ४५९ ॥
अर्थ-~-सत्के प्रदेशोंका संकोच विस्तार होता है। इलिये सत् अनेक है, ऐसी आशंका ठीक नहीं है, यदि सके मोका कोच और विकार होनेसे ही उसे अनेक कहा जाय तो आकाश आदि नित्य-- पाई या काम अनेकत्व नहीं घट सकेगा, क्योंकि आकाश, धर्म द्रव्य, अर्धा के प्रदेश का संकोच विस्तार ही नहीं होता है तथा परमाणु और कालाणु ये दो द्रव्य एक २ प्रदेश मात्र हैं। इनमें संकोच विस्तार हो ही नहीं सक्ता है, फिर इनमें अनेकत्व किस प्रकार सिद्ध होगा ? भावार्थ-संकोच विस्तारसे ही सत्में अनेकत्व मानना ठीक नहीं है।
शनाकारननु च सदेकं देशोरिव संख्या खण्डयितुमशक्यत्वात् ।
अपि सदमेकं दशरिव संख्यानेकतो नयादिति चेत् ॥ ४६॥
अर्थ--प्रदेशोंके समान सत्की संख्याका खण्ड नहीं किया जा सक्ता है, इसलिये तो सत् एक है और प्रदेशोंके समान सत् अनेक संख्यावाला है इस नयसे वह अनेक है ? * भावार्थ-सत् सदा अखण्ड रहता है, इसलिये तो वह एक है, परन्तु अखण्ड रहने पर भी उसके प्रदेशोंकी संख्या अनेक है इसलिये वह अनेक भी कहा जाता है ? ... इस श्लोकमें हवा, अब्दा प्रय ग किस विशेष आशयक आधार पर किया गया है, तो हमारी समझमें नहीं आया है । धितजन विचारें ।
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