Book Title: Panchadhyayi Purvardha
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Granthprakashan Karyalay Indore

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Page 155
________________ १३६ ] पञ्चाध्यायी । [ प्रथम है, उस समय दीपकके प्रदेश कुछ बढ़ नहीं गये हैं और जिस समय कोठरी और घड़ेके भीतर उसे रक्खा है तो उसके प्रदेश क्रमसे घट नहीं गये हैं, किन्तु वे जितने हैं उतने ही हैं, दीपकके जितने भी प्रकाश परमाणु हैं वे सब उतने ही हैं। छोटे बड़े कमरोंमें और घड़े में दीपकको रखसे वे किञ्चित् भी घटे बढ़े नहीं हैं, केवल आवरक (प्रकाशको रोकनेवाला पदार्थ - कमरा, घड़ा आदि ) के भेदसे वे संकुचित और विस्तृत होगये हैं । यदि उन्होंने छोटा क्षेत्र पाया है तो उतने में ही वे संकुच कर समा गये हैं यदि बड़ा क्षेत्र उन्होंने पाया है तो वहां पर वे फैलकर समा गये हैं* इसी दृष्टान्तको स्फुट करनेके लिये दूसरे दृष्टान्तका उल्लेख कर देना भी आवश्यक है । जैसे-एक मन रुई धुनने पर एक बड़े लम्बे चोड़े कोठेमें आसक्ती है, परन्तु वही रुई जब पेचमें दबकर गांठकेरूपमें आजाती है तो बहुत ही थोड़े स्थानमें ( दो फीट लम्बे और उतने ही चौड़े मोटे स्थानसे मी प्रायः कम क्षेत्रमें ) समा जाती है । यह पर विचार करनेका यही स्थल है। कि रुईके प्रदेश धुनते समय क्या कहींसे आकार बढ़ जाते हैं ? अथवा गांठ बांधते समय उसके कुछ प्रदेश कहीं चले जाते हैं ? वास्तव दृष्टिसे इन दोनोंमेंसे एक भी बात नहीं है । क्योंकि दोनों ही अवस्थाओं में रुई तोलने पर एक ही मन * निकलती है । यदि उसके कुछ अंश कहीं चले जाते तो अवश्य उसकी तोलमें घटी होना चाहिये अथवा वृद्धि होने पर उसकी तोलमें वृद्धि होना चाहिये, परन्तु रुईमें घटी बढ़ी थोड़ी भी नहीं होती, इसलिये यह बात माननी ही पड़ती है कि रुईके अथवा दीपके प्रदेश जितने हैं वे उतने ही सदा रहते हैं केवल निमित्तकारणसे उनमें संकोच और विस्तार होता है । वस स्थूलतासे इन्ही दृष्टान्तोंकी तुलना दाष्टन्ति -सत् रखता है । सत् जितने प्रदेशोंमें विभाजित है वह सदा उतने ही प्रदेशों में रहता है । उसके प्रदेशोंमें अथवा उसमें कभी कभी अधिकता या न्यूनता नहीं हो सक्ती है, केवल द्रव्यान्तरके निमित्तसे उनमें अथवा उसमें संकोच और विस्तार हो सक्ता है । यदि पदार्थमें न्यूनाधिक्य होने लगे तो सत्का विनाश और असतका उत्पाद भी स्वयं सिद्ध होगा फिर पदार्थों में कार्य कारण भावका अभाव होनेसे संकर व्यति * यद्यपि एक दीप भी अनेक परमाणुओंका समूह होनेसे अनेक द्रव्योंका समूह है तथापि स्थूल दृष्टिसे उसे दृष्टान्तांशमें एक ही समझना चाहिये । इसीलिये उसके प्रकाशकी मन्दता और अधिकता पर उपेक्षा ही की जाती है। जिस दृष्टिसे दृष्टान्तका प्रयोग किया जाता है उसी दृष्टिसे उसका उतना ही अंश सर्वत्र लेना योग्य है। * रुई धुनते समय जो उसमें से कुछ धूल (किरकिरी) निकल जाने से कई घट जाती है उतना अंश दृष्टान्तांश नहीं कहा जासक्ता । यदि उसे भी जो लेना चाहते है वे धूळके परिमाण और भी कई मिला कर फिर उसे हृष्टान्त बनावें | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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