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१३४ ] पञ्चाध्यायी।
[प्रथम त्र्यणुक चतुरणुक+ शताणुक लक्षाणुक आदि पुद्गल स्कन्ध होसकते हैं। उन्हे क्यों छोड़ दिया गया ? परंतु उपर्युक्त आशङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि यहां शुद्ध नयकी अपेक्षासे शुद्ध द्रव्योंका कथन है, उपचरित द्रव्योंका कथन नहीं है। भावार्थ-संख्यात प्रदेशी कोई द्रव्य नहीं है किन्तु कई पुद्गल द्रव्योंके मेलसे होनेवाला स्कन्ध है। वह यहां पर विवक्षित नहीं है । परमाणु और काल द्रव्यको संख्यात प्रदेशी नहीं कहा गया है किन्तु निरंश-एक देश मात्र कहा गया है।
प्रकारान्तर-- अयमर्थः सद्धेधा यथैकदेशीत्यनेकदेशीति ।
एकमनेकं च स्यात्प्रत्येकं तन्नययान्न्यायात् ॥४५२॥
अर्थ-तात्पर्य यह है कि सत्के दो भेद हैं (१) एक देशी (२) अनेक देशी । इन दोनोंमें प्रत्येक ही दो नयोंकी विवक्षासे एक और अनेक रूप है। भावार्थ-इस श्लोक द्वारा प्रदेशोंके भेद तीनके स्थानमें दो ही बतलाये गये हैं, और असंख्यात तथा अनन्त प्रदेशअनेकमें गर्भित किये गये हैं । जो एक प्रदेशी है वह द्रव्य भी नय सामान्यकी अपेक्षासे एक प्रकार और नय विशेषकी अपेक्षासे अनेक प्रकार है । इसी प्रकार अनेक प्रदेशी दुव्य भी। समझना चाहिये।
अथ यस्य यदा यावद्यदेकदेशे यथा स्थितं सदिति ।*
तत्तावत्तस्य तदा तथा समुदितं च सर्वदेशेषु ॥४५३॥ ___ अर्थ-जिस समय जिस द्रव्यके एक देशमें जैसे सत् रहता है वैसे उस द्रव्यके उस समय सर्व देशोंमें सत् समुदित रहता है । भावार्थ-द्रव्यके एक प्रदेशमें जो सत् है वही उसके सर्व प्रदेशोंमें है । यहां पर तिर्यक् अंश कल्पना द्वारा वस्तुमें क्षेत्रका विचार किया है । जैसे-कोई वस्तु एक अंगुल चौड़ी दो अंगुल लम्बी और उतनी ही मोटी है, यदि ऐसी वस्तुमें तिर्यगंश कल्पना की जाय तो वह वस्तु प्रदेशोंके विभागकी अपेक्षासे उतनी ही लम्बी चौड़ी मोटी समझी जायगी ? और उसके प्रदेश उतने ही क्षेत्रमें समझे जायेंगे । स्मरण रहे कि यह क्षेत्र उस द्रव्यका आधारभूत आकाशरूप नहीं है किन्तु उसी वस्तुके प्रदेशरूप है तथा वे एक अंगुल चौड़े दो अंगुल लम्बे मोटे प्रदेश अखण्ड--एक सत्तावाले
+ दो अणुकोंका मिला हुआ स्कन्ध द्वयणुक और तीनका मिला हुआ व्यणुक कहलाता है। इसी प्रकार सौ अणुओंका स्कन्ध शताणुक कहलाता है। परन्तु नैयायिक दार्शनिक तीन द्वथणुकोंका मिला हुआ एक व्यणुक मानते हैं। चार द्वयाणुकोका मिला हुआ चतुरणक मानते हैं। द्वयणुकको तो वे भी दो परमाणुओंका स्कन्ध कहते हैं। ___x " तन्न तवयान्यायात् " ऐसा मूल पुस्तकमें पाठ है वह अशुद्ध प्रतीत होता है।
* " यावद्यनेकदेशे " ऐसा मूल पुस्तकमें पाठ है वह भी असमञ्जम प्रतीत होता है।
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