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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
क्षेत्र-विचार-
क्षेत्रं प्रदेश इति वा सदधिष्ठानं च भूर्निवासश्च ।
तदपि स्वयं सदेव स्यादपि यावन्न सत्प्रदेशस्थम् ॥४४९ ॥ अर्थ - क्षेत्र कहो, प्रदेश कहो, सत्का आधार कहो, सत्की पृथ्वी कहो, सत्का निवास कहो, ये सब पर्यायवाची है । परन्तु ये सब स्वयं सत् स्वरूप ही हैं। ऐसा नहीं है कि सत् कोई दूसरा पदार्थ हो और क्षेत्र दूसरा हो, उस क्षेत्रमें सत् रहता हो । किन्तु सत् और उसके प्रदेश दोनों एक ही बात है । सत्का क्षेत्र स्वयं सत्का स्वरूप ही है । भावार्थ – जिन आकाशके प्रदेशोंमें सत्-पदार्थ ठहरा हो उनको सत्का क्षेत्र नहीं कहते हैं, उस क्षेत्रमें तो और भी अनेक द्रव्य हैं । किन्तु जिन अपने प्रदेशोंसे सतूने अपना स्वरूप पाया है वे ही सत्के प्रदेश कहे जाते हैं । अर्थात् जितने निज द्रव्यके प्रदेशों में सत् बँटा हुआ है वही उस द्रव्यका क्षेत्र है ।
प्रदेश भेद
अथ ते त्रिधा प्रदेशाः क्वचिन्निरंशैकदेशमात्रं सत् । कचिदपि च पुनरसंख्यदेशमयं पुनरनन्तदेशवपुः ॥ ४५० ॥ अर्थ-वे प्रदेश तीन प्रकार हैं- कोई सत् तो निरंश फिर जिसका खण्ड न हो सके ऐसा एक देश मात्र है, कोई (कहीं पर ) सत् असंख्यात प्रदेशवाला है, और कोई अनन्त प्रदेशी भी है। भावार्थ - - एक परमाणु अथवा एक काल द्रव्य एक प्रदेशी है । यहां पर प्रदेशसे तात्पर्य परमाणु और काल द्रव्यके आधारभूत आकाशका नहीं है x किन्तु परमाणु और काल द्रव्यके प्रदेशका है। दोनों ही द्रव्य एक प्रदेशी हैं । धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, एक जीव द्रव्य ये असंख्यात प्रदेशी हैं। * आकाश अनन्त प्रदेशी है ।
आशङ्का और उत्तर-
ननु च धणुकादि यथा स्यादपि संख्यातदेशि सस्विति चेत् । न यतः शुद्धादेशैरुपचारस्याविवक्षितत्वाद्वा ॥ ४५१ ॥
अर्थ — जिस प्रकार एक प्रदेश, असंख्यात प्रदेश और अनन्त प्रदेशवाले द्रव्य बतलाये गये हैं, उस प्रकार संख्यात प्रदेशी द्रव्य भी बतलानां चाहिये । और ऐसे द्रव्य इणुक
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X जावदियं आयाशं अभिभागी पुग्गलाणुवद्वद्धं तं खु पदेसं जाणे सव्वाणुद्वाणदाणरिहं । द्रव्य संग्रह |
यह पर प्रदेशका परिमाण बतलाने के लिये उसका उपचरित लक्षण किया गया है । परन्तु ऊपर वस्तु- प्रदेश लिया गया है ।
स्कन्ध भी होता है परन्तु उसका यज्ञं ग्रहण नहीं है, क्योंकि उसके प्रदेश उपचरित हैं। यहां शुद्धोंका ही ग्रहण है ।
* असंख्यात प्रदेशी पुद्गल
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