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१३२ 1 पञ्चाध्यायी।
[प्रथम माननेसे सत् असत्के समान ठहरेगा। अथवा अन्वय नहीं बनेगा । अर्थात् यदि छायाको दर्पणकी ही कहा जाय तो जहां २ दर्पण है वहां २ छाया होनी चाहिये परन्तु ऐसा देखने में नहीं आता है, विना छायाके भी दर्पण देखा जाता है। परन्तु द्रव्य गुण पर्यायमें वैसा अन्वयाभाव नहीं है। कथंचित् तीनों ही सहभावी हैं और कथंचित् एक हैं। यदि बह छाया मुखकी कही जाय तो यह पक्ष भी विना विचारे कहा हुआ ही प्रतीत होता है, क्योंकि मुखकी छाया माननेसे व्यतिरेक नहीं बनता है। यदि मुखकी ही छाया मानी जाती है तो जहां २ छाया नहीं है वहां २ मुख भी नहीं होना चाहिये, परन्तु यह बात असिद्ध है, जहां मुख देखनेमें आता है वहां छाया नहीं भी देखनेमें आती है । परन्तु द्रव्य गुण पर्यायमें ऐसा व्यतिरेक व्यभिचार नहीं है । जहां द्रव्य नहीं है वहां गुण पर्याय भी नहीं है और जहां गुण पर्याय नहीं है वहां द्रव्य भी नहीं है। तीनोंमें रूप रस गन्ध स्पर्शके समान अभिन्नता है । इसलिये सत्के विषयमें छाया आदर्शका दृष्टान्त ठीक नहीं है ।
फलितार्थ-- एतेन निरस्तोभून्नानासत्वैकसत्त्ववादीति ।
प्रत्येकमनेकम्प्रति सद्रव्यं सन्गुणो यथेत्यादि ॥४४८॥
अर्थ-कोई दर्शनकार (नैयायिकादि ) ऐसा मानता है कि द्रव्यकी सत्ता भिन्न है गुणकी भिन्न है, कर्मकी भिन्न है, और उन सब भिन्न २ सत्तावाले पदार्थों में एक महा सत्ता रहती है । इस प्रकार नाना सत्त्वोंके ऊपर एक सत्त्व माननेवाला उपर्युक्त कथनसे खण्डित किया गया है । भावार्थ-नैयायिक १६ पदार्थ मानता है । वैशेषिक ७ पदार्थ मानता है । वे सात पदार्थ ये हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, अभाव । ऊपर कहे हुए दोनों ही मत इन सात पदार्थोंको भिन्न २ मानते हैं। परन्तु वास्तवमें ये सातों जुदे २ नहीं है किन्तु सातों मिल कर एक ही पदार्थ है । क्योंकि गुणोंका समूह ही द्रव्य है । द्रव्यसे गुण जुदा पदार्थ नहीं है । गुर्गों में दो प्रकारके गुण हैं (१) भावात्मक ( २ ) क्रियात्मक । क्रियात्मक गुणका नाम ही कर्म है । उन्हीं गुणोंमें द्रव्यकी सत्ता स्थित रखनेवाला अस्तित्त्व नामका गुण है। वही सामान्यके नामसे पुकारा जाता है। विशेष गुणोंको ही विशेषके नामसे कह दिया गया है । विवक्षावश द्रव्य गुणोंमें कथञ्चित् भिन्नता भी लाई जाती है । उस समय उनमें जो तादात्म्य सम्बन्ध माना जाता है उसीका नाम नैयायिकोंने समवाय रख लिया है । विवक्षावश जो एक पदार्थमें इतर पदार्थोंका अभावरूप नास्तित्व धर्म रहता है। उसीको उन्होंने स्वतन्त्र अभाव पदार्थ मान लिया है । इस प्रकार एक पदार्थकी अनेक अवस्थाओंको ही उक्त दर्शनकारोंने भिन्न २ पदार्थ माना है । परन्तु ऐसा उनका मानना उपर्युक्त रीतिसे सर्वथा बाधित है।
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