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अध्याय। सुबोधनी टीका।
[ १३१ अर्थ- इसलिये एकत्व सिद्ध करनेके लिये न तो भिन्न २ अनेक सताओंका सम्मेलन ही प्रयोजक है और न अशक्य विवेचन ही एकत्वका प्रयो नक है किन्तु अखण्ड वस्तुत्व ही उसका प्रयोजक है । अर्थात् जो अखण्ड प्रदेशी- एक सत्तात्मक पदार्थ है वही एक है। प्रकृतमें द्रव्यकी अपेक्षासे भी ऐसा ही अखण्ड प्रदेशी एकत्व सत्में माना गया है।
शङ्काकार-- ननु यदि सदेव तत्त्वं स्वयं गुणः पर्ययः स्वयं सदिति । शेषः स्यादन्यतरस्तदितरलोपस्य दुर्निवारत्वात् ॥ ४४३ ॥ न च भवति तथावश्यम्भावात्तत्समुदयस्य निर्देशात् ।
तस्मादनवयमिदं छायादर्शवदनेकहेतुः स्यात् ॥ ४४४ ॥
अर्थ-यदि स्वयं सत् ही द्रव्य है, स्वयं ही गुण है, स्वयं ही पर्याय है तो एक शेष रहना चाहिये । अर्थात् जब द्रव्य गुण पर्याय तीनों एक ही हैं तो तीनोंमेंसे कोई एक कहा जा सक्ता है बाकीके दोनोंका लोप होना अवश्यम्भावी है, परन्तु वैसा होता नहीं है, द्रव्य गुण पर्याय, तीनोंका कहना ही आवश्यक प्रतीत होता है, इसलिये यह बात ही निर्दोष सिद्ध होती है कि सत् छाया और दर्पणके समान अनेक कारणजन्य है ? गर्थ- यदि द्रव्य गुण पर्याय तीनों एक ही बात है तब तो एक शेष रहना चाहिये, दोका लोप हो जाना चाहिये । यदि तीनों ही तीन वाते हैं तो वे अवश्य ही सत्को अनेक हेतुक सिद्ध करती है, और अनेक हेतुक होनेसे सत्में अनेकत्व भी सिद्ध होगा ?
उत्तरसत्यं सदनेकं स्यादपि तहेतुश्च यथा प्रतीतत्वात् । न च भवति यथेच्छं तच्छायादर्शवदासिद्धदृष्टान्तात् ॥४४५॥
अर्थ-ठीक है, कथंचित् सत् अनेक भी है तथा यथायोग्य अनेक हेतुक भी है। परन्तु उसमें अनेक हेतुता छ।या और दर्पणके समान इच्छानुसार नहीं है किन्तु प्रतीतिके अनुसार है । सत्के विषयमें छायादर्शका दृष्टान्त असिद्ध है। क्यों असिद्ध है ? उसीका उत्तर नीचे दिया जाता है।
प्रतिबिम्बः किल छाया वदनादर्शादिसन्निकर्षादै । आदर्शस्य सा स्यादिति पक्षे सदसदिव चाऽन्वयाभावः ॥४४६॥ यदि वा सा वदनस्य स्यादिति पक्षोऽसमीक्ष्यकारित्वात् । व्यतिरेकाभावः किल भवति तदास्यस्य सतोप्यच्छायत्तात्॥४४७॥
अर्थ-नियमसे प्रतिबिम्बका नाम ही छाया है । वह वदन (मुख) और आदर्श (दर्पण) के सम्बन्धसे होती है। यदि उस छायाको केवल दर्पणकी ही कहा जाय तो ऐसा पक्ष
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