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अध्याम । ]
सुबोधिनी टीका ।
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हैं, इसलिये उन सब प्रदेशोंमें एक ही सत् है अथवा वे सब प्रदेश एक सत् एक द्रव्यके
नामसे कहे जाते हैं ।
इत्यनवद्यमिदं स्याल्लक्षणमुद्देशि तस्य तत्र यथा
' क्षेत्रेणाखण्डित्वात् सदेकमित्यत्र नयविभागोऽयम् ॥ ४५४ ॥ अर्थ -- इस प्रकार उस सत्का यह निर्दोष लक्षण क्षेत्रकी अपेक्षासे कहा गया । एक सत्के सर्व ही प्रदेश अखण्ड हैं इस लिये वे सब एक ही संत् कहे जाते हैं यही एकत्व विषक्षामें नय विभाग है ।
न पुनश्चैकापवरक मञ्चरितानेकदीपवत्सदिति ।
हि यथा दीपसमृद्ध प्रकाशवृद्धिस्तथा न सद्वृद्धिः ॥ ४५५ ॥ अर्थ - जिस प्रकार किसी मकानके भीतर एक दीप फिर दूसरा दीप फिर तीसरा फिर चौथा इसी क्रमसे अनेक दीप लाये जायँ तो जितनी२ दीपोंकी संख्या बढ़ती जायगी उतनी ही प्रकाशकी वृद्धि भी होती जायगी । उस प्रकार सत् नहीं है। सत्की वृद्धि अनेक दीपक प्रकाशके समान नहीं होती है ।
तथा -
अपि तत्र दीपशमनेकस्मिंश्चित्तत्प्रकाशहानिः स्यात् । न तथा स्वादविवक्षितदेशे तडानिरेकरूपत्वात् ॥ ४५६ अर्थ - ऐसा भी नहीं है कि जिस प्रकार मकानमें रक्खे हुए अनेक दीपोंमेंसे किसी दीपके वुझा देनेपर उस मकानमें कुछ प्रकाशकी कमी हो जाती है, उस प्रकार सत्की भी कमी हो जाती है, किन्तु अविवक्षित देशमें सत्की हानि नहीं होती है, वह सदा एकरूप ही रहता है । भावार्थ उपर्युक्त दोनों श्लोकोंमें सत्के विषय में अनेक दीपकका दृष्टान्त विषम है । क्योंकि अनेक दीपक अनेक द्रव्य हैं । अनेक द्रव्योंका दृष्टान्त एक द्रव्यके लिये किस प्रकार उपयुक्त ( ठीक ) हो सक्ता है ? भिन्न २ दीपकका भिन्न २ ही प्रकाश होता है, सब दीपोंका समुदाय ही बहु प्रकाशका हेतु है । इसलिये किसी दीपके लानेसे प्रकाशकी वृद्धिका होना और किसी दीपके वहांसे लेजाने पर प्रकाशकी हानिका होना आवश्यक है परन्तु एक सत्के विषयमें बहु द्रव्योंका दृष्टान्त ठीक नहीं है, हां यदि एक ही दीपकका दृष्टान्त उसके विषयमें दिया जाय तो सम है । जैसे एक दीपकको किसी बड़े कमरे में रखते हैं तो उसका प्रकाश उस विस्तृत कमरे में फैल जाता है, यदि उसको छोटी कोठरोग रखते हैं तो उसका प्रकाश उसीमें रह जाता है, यदि उसे एक घड़े में रखते हैं तो उसका वह बड़े कमरे में फैलनेवाला प्रकाश उसी घड़े में आजाता हैं। यहां पर विचारनेकी बात इतनी ही है कि जिस समय दीपकको बड़े कमरे में हमने रक्खा
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