Book Title: Panchadhyayi Purvardha
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Granthprakashan Karyalay Indore

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Page 157
________________ १३८ पञ्चाध्यायी । उत्तर- न यतोऽशक्यविवेचनमेकक्षेत्रावगाहिनां चास्ति । एकत्वमनेकस्वं नहि तेषां तथापि तदयोगात् ॥ ४६१ ॥ अर्थ-सत् में उपर्युक्त रीतिसे एकत्व अनेकत्व लाना ठीक नहीं है । क्योंकि खण्ड तो एक क्षेत्रावगाही अनेक पदार्थोंका भी नहीं होता है, अर्थात् आकाश, धर्म, अधर्म, काल, इन द्रव्योंमें भी क्षेत्र भेद नहीं है । इनके क्षेत्रका भेद करना भी अशक्य ही है, यद्यपि इन पदार्थोंमें क्षेत्र भेदकी अपेक्षासे अनेकत्व नहीं है, तथापि इसप्रकार उनमें एकत्व अथवा अनेकत्व नहीं घटता है । भावार्थ - लोकाकाशमें सर्वत्र ही धर्म द्रव्य अधर्मद्रव्य काल द्रव्य और आकाश द्रव्यके प्रदेश अनादिकालसे मिले हुए हैं और अनन्तकाल तक सदा मिले ही रहेंगे, उनका कभी क्षेत्र भेद नहीं हो सक्ता है, परन्तु वास्तवमें वे चारों ही द्रव्य जुदे २ हैं । यदि शंकाकारके आधार पर प्रदेशोंका खण्डन होनेकी अपेक्षासे ही सतमें एकत्व आता हो तो धर्मादि चारों द्रव्योंमें एकता ही सिद्ध होगी । E शंङ्काकार- ननु ते यथा प्रदेशाः सन्ति मिथो गुम्फिकतैकसूत्रत्वात् । न तथा सदनेकत्वादेकक्षेत्रावगाहिनः सन्ति + ॥ ४६२ ॥ अर्थ – जिसप्रकार एक द्रव्यके प्रदेश एक सूत्रमें गुम्फित ( गूंथे हुए ) होते हैं । उस प्रकार एक क्षेत्रावगाही अनेक द्रव्योंके नहीं होते हैं ? भावार्थ- शंकाकार फिर भी अपनी शंकाको पुष्ट करता है कि जिस प्रकार एक द्रव्यके प्रदेश अखण्ड होते हैं उसप्रकार अनेक द्रव्यों एक क्षेत्र में रहने पर भी अखण्ड प्रदेश नहीं होते हैं, इसलिये उसने जो प्रदेशोंकी अखण्डता से सत् में एकत्व बतलाया था वह ठीक ही है ? उत्तर- Jain Education International सत्यं तत्र निदानं किमिति तदन्वेषणीयमेव स्यात् । तेनाखण्डितमिव सत् स्यादेकमनेकदेशबस्वेपि ॥ ४६३ ॥ अर्थ- ठीक है, एक पदार्थके प्रदेश जैसे अखण्ड होते हैं वैसे एक क्षेत्रवगाही - अनेक पदार्थोंके नहीं होते, इसका ही कारण ढूंढना चाहिये जिससे कि अनेक प्रदेशवाला होने पर भी सत् एक-अखण्ड प्रतीत हो । भावार्थ - आचार्यने शंकाकारके उपर्युक्त उत्तरको कथंचित् ठीक समझा है इसीलिये उन्होंने अखण्डताके कारण पर विचार करनेके लिये उससे प्रश्न किया है । अब वे यह जानना चाहते हैं कि शङ्काकार पदार्थमें किस प्रकार अखण्डता समझता है । + मूल पुस्तक में "सदेकत्वात्" पाठ 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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