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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
[ १२५
प्रतीत होगी, ऐसी अवस्थामें वह न तो वस्तुमें नित्यता ही स्थिर कर सकेगा और न अनित्यता ही स्थिर कर सकेगा किन्तु सदा सशल्य - संशयालु बना रहेगा । उसी प्रकार यदि वह यह समझने लगे कि वस्तु अनित्य ही होती है, तो भी वह निश्चित विचारवाला निःसंशयी नहीं बन सकेगा, क्योंकि उसी समय अनित्यका विरोधी नित्यरूप -- सदा वस्तुको निजरूप भी वस्तुमें उसे प्रत्यक्ष दीखने लगेगा। इन बातोंसे जाना जाता है कि अनेकान्त - स्याद्वाद बहुत ही कठिन है, अर्थात् सब कोई इसका पार नहीं पासक्ते हैं, इसीलिये यह अच्छा नहीं है, क्योंकि सहसा इससे कल्याण नहीं होता है, दूसरी बात यह भी है कि यह अनेकान्त स्वयं ही दोषी बन जाता है, क्योंकि जो कुछ भी यह कहता है उसी समय उसका व्यभिचार निरोध खड़ा हो जाता है, इसलिये यह अनेकान्त ठीक नहीं है ?
उत्तर-
तन्न यतस्तदभावे बलवानस्तीह सर्वथैकान्तः ।
सोपि च सदनित्यं वा सन्नित्यं वा न साधनायालम् ॥ ४२२ ॥ अर्थ - शंकाकारका उपर्युक्त कहना ठीक नहीं है क्योंकि यदि अनेकान्तका अभाव मान लिया जाय तो उस समय एकान्त ही सर्वथा बलवान सिद्ध होगा, वह या तो सत्को सर्वथा नित्य ही कहेगा अथवा सर्वथा उसे अनित्य ही कहेगा, परन्तु सर्वथा एकान्तरूपसे पदार्थमें न तो नित्यता ही सिद्ध होती है और न अनित्यता ही सिद्ध होती है । इसलिये एकान्त पक्षसे कुछ भी सिद्धि नहीं होती है । इसी बातको नित्य अनित्य पक्षों द्वारा नीचे दिखाते हैं
सन्नित्यं सर्वस्मादिति पक्षे विक्रिया कुतो न्यायात् ।
तदभावेपि न तखं क्रियाफलं कारकाणि यावदिति ॥ ४२३ ॥ परिणामः सदवस्थाकर्मत्वाद्विक्रियेति निर्देशः ।
तदभावे सदभावो नासिडः सुप्रसिद्धदृष्टान्तात् ॥ ४२४ ॥
अर्थ- सर्वथा सत् नित्य ही है, ऐसा पक्ष स्वीकार करनेपर पदार्थ में विक्रिया किस न्यायसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सक्ती, यदि पदार्थ में विक्रिया ही न मानी जाय तो उसके अभावमें पदार्थ ही सिद्ध नहीं होता है, न क्रिया ही सिद्ध होती है, न उसका फल सिद्ध होता है और न उसके कारण ही सिद्ध होते है । क्योंकि सत् पदार्थ की अवस्थाओं का नाम ही परिणाम है, और उसीको विक्रियाके नामसे कहते हैं । उस परिणामका प्रतिक्षण होनेवाली अवस्थाओंका अभाव मानने पर सत्का ही अभाव हो जाता है यह बात असिद्ध नहीं है, किन्तु सुप्रसिद्ध दृष्टान्तसे सिद्ध है ।
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