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पञ्चाध्यायी।
[प्रथम
पहलेके वर्ण भी नष्ट हो जायँगे । इसलिये शून्य वादियोंके यहां पदार्थकी सिद्धि तो दूर रहो, उसका प्रतिवादक वाक्य भी नहीं बनता है।
अपि च सदमन्यमानः कथमिव तदभावसाधनायालम् । वन्ध्यासुतं हिनस्मीत्यध्यवसायादिवद्व्यलीकत्वात् ॥४३१॥
अथ-यदि सत्का अभाव स्वीकार करते हुए ही किसी प्रकार पदार्थमें नित्यपनेका अभाव सिद्ध किया जाता है तो यह सिद्ध करना उसी प्रकार मिथ्या (झूठा) है जिस प्रकर किसीका यह कहना कि मैं वाझ स्त्रीके पुत्रको मारता हूं, मिथ्या है । भावार्थ-जब वाझ स्त्रीके पुत्र ही नहीं होता तो फिर मारा किसे जायगा । उसी प्रकार जब सत्का अभाव ही सर्वथा अनित्यवादियोंने स्वीकार कर लिया है तो वे नित्यताका अभाव किसमें सिद्ध करेंगे।
अपि यत्सत्तन्नित्यं तस्साधनमिह यथा तदेवेदम् । तदभिज्ञानसमक्षात् क्षणिकैकान्तस्य बाधकं च स्यात् ।।४३२॥
अर्थ-दूसरी बात यह भी है कि लोकमें ऐसी प्रतीति भी होती है जो कि क्षणिक एकान्तकी सर्वथा वाधक है । वह प्रतीति इस प्रकार है-जो सत् है वह नित्य है, जैसे-यह वही वस्तु है जिसे पहले हमने देखा था ऐसा प्रत्यभिज्ञान । प्रत्यभिज्ञान प्रतीति यथार्थ है क्योंकि उससे लोक यथार्थ बोध और इष्ट वस्तुकी प्राप्ति करता है, प्रत्यभिज्ञानकी यथार्थतासे पदार्थ भी नित्य सिद्ध हो जाता है । विना कथंचित् नित्यताके पदार्थमें प्रत्यभिज्ञान प्रतीति होती ही नहीं । इसलिये यह प्रतीति ही क्षणिकैकान्तकी बाधक है।
सवथा नित्य मानने में दोषक्षणिकैकान्तवदित्यपि नित्यैकान्ते न तत्त्वसिद्धिः स्यात् । । तस्मान्न्यायागतमिति नित्यानित्यात्मकं स्वतस्तत्वम् ॥४३३॥
अर्थ-जिस प्रकार क्षणिकैकान्तसे पदार्थकी सिद्धि नहीं होती है उसी प्रकार नित्य एकान्तसे भी पदार्थकी सिद्धि नहीं होती है। इसलिये यह बात न्यायसे सिद्ध है कि पदार्थ कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य भी है, उभयात्मक है । भावार्थ-जैसे सर्वथा क्षणिक असिद्ध है वैसे सर्वथा नित्य भी असिद्ध है, क्योंकि प्रत्यभिज्ञान जैसे सर्वथा अनित्यमें नहीं हो सक्ता है वैसे वह सर्वथा नित्यमें भी नहीं हो सक्ता है । इसका कारण भी यह है कि प्रत्यभिज्ञानमें पूर्व और वर्तमान ऐसी दो प्रकारकी प्रतीति होती है । सर्वथा नित्यमें वैसी प्रतीति नहीं हो सक्ती है। इसलिये पदार्थ नित्यानित्यात्मक ही युक्ति, अनुभव, आगमसे सुसिद्ध है।
ननु चैकं सदिति स्याकिमनेकं स्यादथोभयं चैतत् । अनुभयमिति किं तत्त्वं शेषं पूर्ववदथान्यथा किमिति ॥ ४३४॥
शङ्काकार--
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