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१२२ ] पञ्चाध्यायी।
[प्रथम उपर्युक्त दृष्टान्त प्रशंसनीय नहीं हैदृष्टान्ताभासा इति निक्षिप्ताः स्वेष्टसाध्यशून्यत्वात् ।
लक्ष्योन्मुखेषव इव दृष्टान्तास्त्वथ यथा प्रशस्यन्ते ॥४१०॥
अर्थ-ऊपर जो दृष्टान्त दिये गये हैं वे सब दृष्टान्ताभास + हैं उनसे उनके साध्यकी सिद्धि नहीं होती है । जो दृष्टान्त लक्ष्यके सन्मुखवाणोंके समान स्व साध्यकी सिद्धि कराते हैं वे ही दृष्टान्त प्रशंसनीय कहे जाते हैं।
सत् परिणाम कथंचित् भिन्न अभिन्न हैंसत्परिणामादैतं स्यादविभिन्नप्रदेशवत्वावै ।
सत्परिणामद्वैतं स्थादपि दीपप्रकाशयोरेव ॥ ४११॥ ___अर्थ-सत् परिणामके भिन्न प्रदेश नहीं हैं किन्तु अभिन्न हैं, इसलिये उन दोनोंमें द्वैत भाव नहीं है, अर्थात् दोनों एक ही अद्वैत् हैं । तथा कथंचित् सत् और परिणाममें द्वैत भी है, अर्थात् कथंचित् सत् भिन्न है और परिणाम भिन्न है । सत् परिणाममें कथंचित् भिन्नता और कथंचित् अभिन्नता ऐसी ही है जैसी कि दीप और प्रकाशमें होती है । दीपसे प्रकाश कथंचित् भिन्न भी है और कथंचित अभिन्न भी है ।
और भीअथवा जलकल्लोलबदद्वैतं दैतमपि च तदुबैतम् ।
उन्मजच निमजन्नाप्युन्मजनिमजदेवेति ॥ ४१२ ॥ अर्थ--अथवा सत् परिणाममें जल और उसकी तरंगोंके समान कथंचित् भिन्नता और अभिन्नता है । जलमें एक तरंग उछलती है दूसरी शान्त होती है, फिर तीसरी उछलती है चौथी शान्त होती है । इ. तरंगोंके प्रवाहसे तो प्रतीत होता है कि जलसे तरंगें भिन्न हैं । परन्तु वास्तव दृष्टि से विचार किया जाय तो न कोई तरंग उछलती है और न कोई शान्त होती है, केवल जल ही जल प्रतीत होता है। विचार करने पर तरंगें भी जलमय ही प्रतीत होने लगती हैं, इसी प्रकार सत्से परिणाम कथंचित् भिन्न भी प्रतीत होता है, क्योंकि जो एक समयमें परिणाम है, वह दूसरे समयमें नहीं है । जो दूसरे समयमें है वह तीसरेमें नहीं है । यदि द्रव्य दृष्टिसे विचार किया जाय तो उन प्रतिक्षणमें होनेवाले परिणामों-अबस्थाओंका समूह ही द्रव्य है । अनादि-अनन्तकालके परिणामसमूहको छोड़कर सत् और कोई पदार्थ नहीं है, इसलिये सत्से परिणाम भिन्न भी नहीं है ।भावार्थविवक्षाधीन दोनोंकी सिद्धि होती है।
+ साध्यका सिद्ध करावालेको दृष्टान्त कहते हैं, परन्तु जो साध्यकी सिद्धि तो नहीं करावे, किन्तु दृष्टान्तसा दीखता हो उसे दृष्टान्ताभास कहते हैं।
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