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१४]
पचाध्यायी ।
[ प्रथम
होता है कि " यह दीप - शिखा सर्वथा वही है जो पहले थी " इसका समाधान भी विना अतत् पक्ष स्वीकार किये नहीं होता है । भावार्थ - तत् और अतत् में यह विचार किया जाता है कि यह वस्तु किसी दृष्टिसे वही है और किसी दृष्टिसे वह नहीं है किन्तु दूसरी है । परन्तु नित्य, अनित्यमें यह विचार नहीं होता है, वहां तो केवल नित्य, अनित्य रूपसे परिणमन होनेका ही विचार है, वही है या दूसरा है, इसका कुछ विचार नहीं होता है। यदि वस्तु तत्, अतत् पक्षको न माना जाय, केवल नित्य अनित्य पक्षको ही माना जाय तो अवश्य ही उसमें ऊपर की हुई आशंकायें आसक्ती हैं, उनका समाधान विना तत् तत् पक्षके स्वीकार किये नहीं होता ।
सारांश---
तस्मादवसेयं सन्नित्यानित्यत्ववत्सदतद्वत् ।
यस्मादेकेन विना न समीहितसिद्धिरध्यक्षात् ॥ ३२१ ॥
अर्थ — इसलिये यह बात निश्चित समझना चाहिये कि निस्य अनित्य पक्षकी तरह तत अतत पक्ष भी वस्तुमें मानना योग्य है । क्योंकि जिस प्रकार नित्य अनित्य पक्षके विना स्वीकार किये इच्छित अथकी सिद्धि नहीं होती है, उसी प्रकार विना तत् अतत् पक्षके स्वीकार किये भी इच्छित अर्थकी सिद्धि नहीं हो सक्ती है । इसलिये दोनोंका मानना ही परम आवश्यक है ।
शङ्काकार
ननु भवति सर्वथैव हि परिणामो विसदृशोऽथ सदृशो वा । ईहितसिद्धिस्तु सतः परिणामित्वाद्यथाकथञ्चिद्वै ॥ ३२२ ॥
अर्थ - शंकाकार कहता है कि परिणाम चाहे सर्वथा समान हो अथवा चाहे सर्वया असमान हो, तुम्हारे इच्छित अर्थकी सिद्धि तो पदार्थको परिणामी मानने से ही यथा कथञ्चित् बन ही जायगी ? भावार्थ- पदार्थको केवल परिणामी ही मानना चाहिये उसमें सदृश अथवा असके विचारकी कोई आवश्यकता नहीं है ।
उत्तर----
तन्न यतः परिणामः सन्नपि सहशैकपक्षतो न तथा ।
न समर्थश्रार्थकृते नित्यैकान्तादिपक्षवत् सदृशात् ॥ ३२३ ॥
अर्थ - उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है क्योंकि सत् में दो प्रकारका ही परिणपन होगा, सहशरूप अथवा विसदृशरूप । यदि सदृश रूप ही मतुमें परिणमन माना जाय तो भी इष्ट अर्थी सिद्धि नहीं होती है । जिस प्रकार नित्यैकान्त पक्षमें दोष आते हैं उसी प्रकार सह परिणाममें भी दोष आते हैं उससे भी अभीष्टकी सिद्धि नहीं होती है ।
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