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पञ्चाध्यायी।
[प्रथम
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शङ्काकार-- ननु तदतदोईयोतिः नित्यानिस्यत्वयोध्योरेव ।
को भेदो भवति मिथो लक्षणलक्ष्यैकभेदभिन्नत्वात् ॥ ३११ ॥ ___ अर्थ-तत् और अतत इन दोनों में तथा नित्य और अनित्य इन दोनोंमें परस्पर क्या भेद है, क्योंकि दोनोंका एक ही लक्षण है, और एक ही लक्ष्य है ? भावार्थ-तत्का अर्थ है-बह, और अतत्का अर्थ है-वह नहीं, जो तत् और अतत्का अर्थ है वही नित्य और अनित्यका अर्थ है, फिर दोनोंके कहनेकी क्या आवश्यक्ता है ?
उत्तर-- . नैवं यतो विशेषः समयात्परिणमति दान नित्यादौ ।
तदतावविचारे परिणामो विसहशोथ सदृशो वा ॥ ३१२ ॥
अर्थ--उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है क्योंकि नित्य अनित्यमें और तद्भाव अतद्भावमें अवश्य भेद है । भेद भी यह है कि नित्य, अनित्य पक्षमें तो वस्तु के समय समयमें होनेवाले परिणमनका ही विचार होता है, वहां पर 'समान परिणाम हैं या असमान हैं, इसका विचार नहीं होता है, परन्तु तद्भाव, अतद्भाव पक्षमें यह विचार होता है कि जो वस्तुमें परिणमन हो रहा है, वह सदृश है अथवा विसदृश है।
शङ्काकार--- ननु सन्नित्यमनित्यं कथंचिदेतावतैव तसिद्धिः।
तकिं तदतावाभाव विचारेण गौरवादिति चेत् ॥ ३१३ ॥
अर्थ-सत् कथंचित नित्य है, कथंचित् अनित्य है, इतना ही कहनेसे वस्तुकी सिद्धि हो जाती है, फिर तत, अतत्के भाव और अभावके विचारसे क्या प्रयोजन ? इससे उल्टा गौरव ही होता है ?
उसर
नैवं तदतद्भावाभावविचारस्य निन्हवे दोपात् । नित्यानित्यात्मनि सतिसत्यपिन स्यात् क्रियाफलं तत्त्वम्॥३१४॥
अर्थ-ऊपर की हुई शंका ठीक नहीं है, को कन,तु भाव और अभावका विचार यदि न किया जाय तो वस्तु सदोष उहती है। तत् अतत् विना बल्नुको नित्य और अनित्य स्वरूप मानने पर भी उसमें क्रिया और फल नहीं सकते।
सर्वथा नित्य पश्नमें दोष--- अयमों यदि निशं सर्व तत् सर्वथेति किल पक्षः।
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