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पञ्चाध्यायी।
[प्रथम
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___अर्थ-आधार आधेय न्यायसे जो दो कारकोंका दृष्टान्त दिया गया है वह भी ठीक नहीं है, वह व्यभिचारी है क्योंकि वह सपक्ष विपक्ष दोनोंमें ही रहता है। साध्यके अनुकूल दृष्टान्तको सपक्ष कहते हैं और उसके प्रतिकूल दृष्टान्तको विपक्ष कहते हैं। जो दृष्टान्त साध्यका सपक्ष भी हो तथा विपक्ष भी हो वह व्यभिचार दोष विशिष्ट दृष्टान्त कहलाता है। सत् परिणमके विषयमें दो कारकोंका दृष्टान्त भी ऐसा ही है । क्योंकि जैसे आधार आधेय दो कारक 'वृक्षे शाखा' (वृक्षमें शाखा) यहां पर अभिन्न-एकात्मक पदार्थमें होते हैं, वैसे 'स्थाल्यां दधि' (वटलोईमें दही यहां पर भिन्न-अनेक पदार्थोंमें भी होते हैं । अर्थात् 'वृक्षे शाखा' यहां पर जो आधार आधेय है वह अभिन्न पदार्थमें हैं इसलिये सपक्ष है। परन्तु 'स्थाल्यां दधि' यहां पर जो आधार आधेय है वह भिन्न दो पदार्थोंमें है इस लिये वह विपक्ष है। इसलिये दो कारकोंका दृष्टान्त व्यभिचारी है। यदि कोई यह कहै कि यह दृष्टान्त व्यभिचारी भले ही हो, परन्तु इससे अपने पक्षकी सिद्धि भी किसी तो प्रकार हो ही जाती है । यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि व्यभिचारी दृष्टान्त जैसे दूसरे पक्षका शत्रु है वैसे अपने अपने पक्षका भी तो स्वयं शत्रु है अर्थात् व्यभिचारी दृष्टान्त जैसे सपक्षमें रह कर साध्यकी सिद्धि कराता है वैसे विपक्षमें रहकर वह साध्य विरुद्ध भी तो हो जाता है । इसलिये यह दृष्टान्त दृष्टान्ताभास है। यहांपर सत् और परिणाममें देशके अंश होनेसे अंशपना सिद्ध किया जाता है और उनका आधार उनमे भिन्न पदार्थ सिद्ध किया जाता है (यह शंकाकारका मत है यदि उन दोनोंका कोई स्वामी-आधारभूत पदार्थ हो तब तो आधार आधेयभाव उनमें बन जाय, परन्तु सत् परिणामसे अतिरिक्त उनका कोई स्वामी ही नहीं है तो फिर ये दोनों किसके अंश कहलावेंगे, वे दोनों तो अंश स्वरूप ही माने जा चुके हैं ? इसलिये कारकद्वयका दृष्टान्त ठीक नहीं है।
वीजाकर भी दृष्टान्ताभास हैनाप्युपयोगी कचिदाप बीजाङ्कुरवदिहेति दृष्टान्तः । स्वावसरे स्वावसरे पूर्वापरभावभावित्वात् ॥ ३८७ ॥ बीजावसरे नाङ्कुर इव वीज नाङ्गुरक्षणे हि यथा । नता संस्मरण दैतस्य तदेककालत्वात् ॥ ३८८ ॥
अर्थ-बीज और अङ्कएका दृष्टान्त भी सत् परिणामके विषयमें उपयोगी नहीं पड़ता है, क्योंकि बीन अपने समयमें होता है, अङ्कुर अपने समयमें होता है । दोनों ही पूर्वापरभाव वाले हैं अर्थात् आगे पीछे होने वाले हैं जिस प्रकार बीजके समय में अङ्कुर नहीं होता है और अङ्कुरके समयमें बीज नहीं होता है, उस प्रकार सत् और परिणाममें पूर्वापरभाव नहीं होता है, उन दोनोंका एक ही काल है । उसीको स्पष्ट करते हैं
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