Book Title: Panchadhyayi Purvardha
Author(s): Makkhanlal Shastri
Publisher: Granthprakashan Karyalay Indore

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Page 135
________________ ११६ ] पञ्चाध्यायी । [प्रथम सत्का विनाश और असत्की उत्पत्ति माननेसे जो दोष आते हैं उनका पहले ( १० वें श्लोकमें ) विवेचन किया जा चुका है। कनकोपल भी दृष्टान्ताभास हैकनकोपलवदिहैषः क्ष ते न परीक्षितः क्षणं स्थातुम् । गुणगुणिभावाभावाद्यतः स्वयमसिद्धदोषात्मा ॥ ३९२॥ हेयादेयविचारो भवति हि कनकोपलद्वयोरेव । तदनेकद्रव्यत्वान्न स्यात्साध्ये तदेकद्रव्यत्वात् ॥ ३९३ ॥ अथ----सत् परिणामके विषयमें कनकोपलका दृष्टान्त भी ठीक नहीं है। यह दृष्टान्त परीक्षा करनेपर क्षण मात्र भी नहीं ठहर सक्ता है । सोना और पत्थर इन मिली हुई दो द्रव्योंका नाम ही कनकोपल है । इसलिये कनकोपल दो द्रव्योंके समुदायका नाम है । कनकोपलमें गुणगुणीभाव नहीं है अतः यह दृष्टान्त असिद्ध है । क्योंकि जिस प्रकार सत् परिणाममें कथञ्चित् गुणगुणीभाव है इस प्रकार इस दृष्टान्तमें नहीं है। दो द्रव्योंका समुदाय होनेसे ही कनकोपलमें कुछ अंशके ग्रहण करनेका और कुछ अंशके छोडनेका विचार हो सक्ता है। परन्तु सत् परिणाममें इस प्रकार हेय उपादेय विचार नहीं हो सक्ता है, क्योंकि वे दोनों एक द्रव्यरूप हैं । जहांपर दो अथवा अनेक द्रव्य होते हैं वहीं पर एक द्रव्यका ग्रहण और एकका त्याग हो सक्ता है परन्तु जहां पर केवल एक ही द्रव्य है वहां पर ऐसा होना असंभव ही है । इसलिये कनकोपलका दृष्टान्त सर्वथा विषम है । वाच्य वाचक भी दृष्टान्ताभास है-- वागर्थव्यमिति वा दृष्टान्तो न स्वसाधनायालम् । घट इति वर्णद्वैतात् कम्बुग्रीवादिमानिहास्त्यपरः ॥३९४ ॥ यदि वा निस्सारतया वागेवार्थः समस्थते थे । न तथापीष्टसिद्धिः शब्दवदर्थस्याप्यनित्यत्वात् ३९५ ॥ अर्थ-वचन और पदार्थ अर्थात् वाच्य वाचक द्वैतका दृष्टान्त भी अपनी सिद्धि करानेमें समर्थ नहीं है । क्योंकि घट-घकार और टकार इन दो वर्णोसे कम्युग्रीवादि वाला घट पदार्थ दूसरा ही है। जिस कम्वु (शंख) ग्रीवावाले घटमें जल रक्खा जाता है वह घट पदार्थ उन घ-ट वर्णोसे सर्वथा जुदा ही है। केवल घट शब्दके उच्चारण करनेसे उस घट पदार्थका बोध हो जाता है इतना ही मात्र घट शब्दका घट पदार्थके साथ वाच्य वाचक सम्बन्ध है। परन्तु सत् परिणाम इस प्रकार भिन्न नहीं है । यदि वागर्थ, शब्दका वचन और पदार्थ, यह अर्थ न किया जाय और दूसरा कि वचन रूप ही अर्थ किया जाय तो ऐसा अर्थ करना पहले तो निस्सार ही है परन्तु सिद्धि के लिये यदि वह माना भी जाय तो भी उससे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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