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पञ्चाध्यायी ।
[ प्रथम
अपि चान्यतरेण विना यथेष्टसिद्धिस्तथा तदितरेण । भवतु विनापि च सिद्धि: स्यादेव कारणाद्य भावश्च ॥ ३९९ ॥ अर्थ- - यहांपर अपूर्ण न्यायसे एकका मुख्यतासे दूसरेका उदासीनतासे ग्रहण करने रूप दृष्टान्त भी परीक्षा करने योग्य नहीं है । क्योंकि अपूर्ण न्यायसे जिसका मुख्यतासे 1 ग्रहण किया जायगा वही प्रधान ठहरेगा, दूसरा जो उदासीनता से कहा जायगा वह नहीं के बराबर सामान्य ठहरेगा, ऐसी अवस्थामें द्वैतका अभाव दुर्निवार ही होगा, अर्थात् जब दूसरा उदासीन नहीं के तुल्य है तो एक ही समझना चाहिये, इसलिये एककी ही सिद्धि होगी, परन्तु सत् परिणाम दो हैं । अतः अपूर्ण न्यायका दृष्टान्त उनके विषयमें ठीक नहीं है यदि यह कहा जाय कि दोनों ही यद्यपि समान हैं तथापि एकको मुख्यतासे कह दिया जाता है। तो यह कहना भी विरुद्ध ही पड़ता है, जब दोनोंकी समानता में भी एकके बिना दूसरेकी सिद्धि हो जाती है तो दूसरे की भी सिद्धि पहले के विना हो जायगी, अर्थात् दोनों ही निरपेक्ष अथवा एक व्यर्थ सिद्ध होगा, ऐसी अवस्थामें कार्यकारण भाव भी नहीं वन सकेगा । क्योंकि कार्यकारण भाव तो एक दूसरेकी आधीनतामें ही बनता है । इसलिये अपूर्ण न्यायका दृष्टान्त सव तरह विरुद्ध ही पड़ता है ।
मित्रद्वैत भी दृष्टान्ताभास है
मित्रद्वैतवदित्यपि दृष्टान्तः स्वप्नसन्निभो हि यतः । स्याद्वौरवप्रसंगातोरपि हेतु हेतुरनवस्था ॥ ४०० ॥ तदुदाहरणं कश्चित्स्वार्थ सृजतीति मूलहेतुतया । अपरः सहकारितया तमनु तदन्योपि दुर्निवारः स्यात् ॥ ४०१ ॥ कार्यम्प्रति नियतत्वाद्धेतुद्वैतं नं ततोऽतिरिक्तंचेत् ।
तन्न यतस्तन्नियमग्राहकमिव न प्रमाणमिह ॥ ४०२ ॥
अर्थ -- एक अपने कार्यको सिद्ध करता है, दूसरा उसका उसके कार्य में सहायक होता है, यह मित्रका दृष्टान्त भी स्वप्नके समान ही है । जिस प्रकार स्वप्न में पाये हुए पदार्थसे कार्यसिद्धि नहीं होती है, उसी प्रकार इस दृष्टान्तसे भी कुछ कार्यसिद्धि नहीं होती है, क्योंकि इस दृष्टान्तसे हेतुका हेतु उसका भी फिर हेतु, उस हेतुका भी हेतु मानना पड़ेगा । ऐसा माननेसे अनवस्था दोष आवेगा और गौरवका प्रसंग भी आवेगा । उसका दृष्टान्त इस प्रकार है कि जैसे कोई पुरुष मुख्यतासे अपने कार्यको सिद्ध करता है और दूसरा उसका मित्र उसके उस कार्यमें सहायक होजाता है । जिस प्रकार दूसरा पहलेकी सहायता करता है उसी प्रकार दूसरेकी सहायता के लिये तीसरे सहायककी आवश्यकता है, उसके लिये चौथेकी, उसके
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