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अध्याय ।
सुबोधिनी टीका ।
[ १०९
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न हो सकेगा। इसलिये द्रव्यसे धर्मोको जुदा मानना ठीक नहीं है। यदि यह कहा जाय कि दोनों धर्म द्रव्यसे अभिन्न हैं तो प्रश्न होता है कि वे वस्त्र और वस्त्रमें रहनेवाले रूप (रंग) की तरह अभिन्न हैं अथवा आटेमें मिले हुए खारेपनकी तरह अभिन्न हैं ? यदि कहा जाय कि खारे द्रव्यके समान वे धर्म द्रव्यसे अभिन्न हैं तो वह भी ठीक नहीं है । क्योंकि लवणकी रोटीमें जो खारापन है वह लवणका है, रोटीका नहीं है । रोटीसे खारापन जुदा ही है । इसीके समान धर्म द्वय भी द्रव्यसे जुदे पड़ेगे । जुदे होनेसे उनमें परस्पर एक दूसरेकी अपेक्षा भी + नहीं रहेगी। परंतु सत् और परिणाम परस्पर सापेक्ष हैं इसलिये क्षार द्रव्यके समान उनकी अभिन्नता उपादेय ( ग्राह्य ) नहीं है। क्षार द्रव्यके समान जो अभिन्नता है वह वैसी ही है जैसी कि क, ख, ग, घ आदि वर्णोकी पंक्ति सर्वथा स्वतन्त्र होती है । * इस प्रकारकी स्वतन्त्रता माननेसे न तो नय ही सिद्ध होते हैं और न प्रमाण ही सिद्ध होता है । विना परस्परकी अपेक्षाके एक भी सिद्ध नहीं हो सका है। इसलिये क्षार द्रव्यके समान न मानकर रूप और पटके समान उन धर्मोकी अभिन्नता यदि मानी जाय तो यह प्रकृतके अनुकूल ही है । अर्थात् जिस प्रकार वस्त्र और उसका रंग अभिन्न है. विना वस्त्रकी अपेक्षा लिये उसके रंगकी सिद्धि नहीं, और विना उसके रंगकी अपेक्षा लिये वस्त्रकी सिद्धि नहीं, उसी प्रकार यदि परस्पर सापेक्ष सत् और परिणामकी अभिन्नता भी मानी जाय तब तो हमारा कथन ही (जैन सिद्धान्त) सिद्ध होता है, फिर शङ्काकारका एक पदार्थके ही सत् और परिणाम, दो नाम कहना तथा अग्नि और वैश्वानरका दृष्टान्त देना निरर्थक ही नहीं किन्तु उसके पक्षका स्वयं विघातक है।
सव्येतर गोविषाण भी दृष्टान्ताभास है। अपि चाकिश्चित्कर इव सव्येतरगोविषाणदृष्टान्तः। सुरभि गगनारविन्दमिवाश्रयासिद्धदृष्टान्तात् ॥ ३७४ ॥
अर्थ-जिस प्रकार गौके दाये वाये दो सींग एक साथ उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार सत् और परिणाम भी एक साथ होनेवाले वस्तुके धर्म हैं, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, सत् और परिणामके विषयमें गौके सींगोंका दृष्टान्त अकिञ्चित्कर है अर्थात् इस दृष्टान्तसे कुछ भी सिद्धि नहीं होती है। क्योंकि इस दृष्टान्तमें आश्रयासिद्ध दोष आता है। जहां पर
+ आटे और लवणने यद्यपि स्वाद की अपेक्षासे परस्पर अपेक्षा है परन्तु ऐसी अपेक्षा नहीं है कि विना अटेके लवण की सिद्धि न हो, अथवा विना लवणके आटेकी सिद्धि न हो। परन्तु सत् और परिणाममें वैसी ही अपेक्षा अभीष्ट है विना सत्के परिणाम नहीं ठहरता और विना पारणामके सत् नहीं ठहरता। दोनोंकी एक दूसरेकी अपेक्षामें ही सिद्धि है।।
* भिन्न २ रखे हुए सभी वर्ण स्वतन्त्र है, ऐसी अवस्थामें उनसे किसी कार्यकी भी सिद्धि नहीं हो सकी है।
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