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अध्याय।
सुबोधनी टीका। नापीष्टः संसिध्यै परिणामो विसदृशैकपक्षास्मो।
क्षणिकैकान्तवदसतः प्रादुर्भावात् सतो विनाशाहा ॥ ३२४ ॥ अर्थ-यदि विपदृश रूप एक पक्षात्मक ही परिणमन माना जाय तो मी अमीष्टकी सिद्धि नहीं होती हैं। केवल विसदृश पक्ष माननेमें क्षणिकैकान्तकी तरह असत्की उत्पत्ति भौर सत्का विनाश होने लगेगा ।
एतेन निरस्तोऽभूत् क्लीवत्वादात्मनोऽपराद्धतया।
तदतावाभावापन्हववादी विवोध्यते त्वधुना ॥ ३२५ ॥
अर्थ-सदृश, असदृश पक्षमें नित्यैकान्त और अनित्यैकान्तके समान दोष आनेसे तत् भतत् पक्षका लोप करनेवाला शंकाकार खण्डित हो चुका । क्योंकि यह आत्मापराधी होनेसे स्वयं शक्ति हीन होचुका । अस्तु, अब हम (आचार्य) उसे समझाते हैं।
तत् अतत् भावके स्वरूपके कहनेकी प्रतिशा-- तदतावनिवडो यः परिणामः सतः स्वभावतया।
तदर्शनमधुना किल दृष्टान्तपुरस्सरं वक्ष्ये ॥ ३२६ ॥
भर्य-तद्भाव और अतद्भावके निमित्तसे जो वस्तुका स्वभावसे परिणमन होता है, उसका स्वरूप अब दृष्टान्त पूर्वक कहा जाता है।
साश परिणमनका उदाहरण-- जीवस्य पथा ज्ञानं परिणामः परिणमस्तदेवेति ।
सहशस्योहाहृतिरिति जातेरनतिक्रमत्वतो वाच्या ॥ ३२७ ॥
अर्थ-जैसे जीवका ज्ञान परिणाम, परिणमन करता हुआ सदा वही (ज्ञान रूप ही) रहता है। ज्ञानके परिणमनमें ज्ञानत्व जाति (ज्ञानगुण) का कभी उल्लंघन नहीं होता है। यही सदृश परिणमनका उदाहरण है।
_असहश परिणमनका उदाहरणयदि वा तदिह ज्ञानं परिणामः परिणमन्न तदिति यतः। स्वावसरे यत्सत्त्वं तदसत्त्वं परत्र नययोगात् ॥ ३१८॥
अर्थ-अथवा यही जीवका ज्ञान परिणाम परिणमन करता हुआ वह नहीं भी रहता है, क्योंकि उसका एक समयमें जो सत्त्व है, वह नय दष्टिसे दूसरे समयमें नहीं है।
इस विषयमें भी दृष्टान्त. अत्रापि च संदृष्टिः सन्ति च परिणामतोपि कालांशाः।
जातेरनतिकमतः सदृशरवनिवन्धना एव ॥ ३२९ ॥
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