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पचाध्यायी ।
[ प्रथम
यहां पर दूसरा यह भी दृष्टान्त है कि यद्यपि कालके अंश परिणमनशील हैं तथापि स्वजातिका उल्लंघन नहीं होनेसे वे पदार्थ में सदृशवृद्धि के ही उत्पादक हैं ।
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अपि नययोगाद्विसदृशसाधनसिध्यै त एव कालांशाः । समयः समयः समयः सोपीति बहुप्रतीतित्वात् ॥ ३३० ॥ अर्थ - अथवा नयदृष्टिसे वे ही कालके अंश विसदृश बुद्धिके उत्पादक हो जाते हैं। क्योंकि उनमें एक समय, दो समय तीन समय, चार समय आदि अनेक रूपसे भिन्न २ प्रतीति होती है, वही क्षणभेद-प्रतीति पदार्थ भेदका कारण है ।
अभिन्न प्रतीति हेतु
अतदिदमितीत क्रियाफलं कारकाणि हेतुरिति ।
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तदिदं स्यादिह संविदि हि हेतुस्तत्त्वं हि चेन्मिथः प्रेम ||३३१ ॥ अर्थ - ' अतत् ' अर्थात् यह वह नहीं है इस प्रतीतिमें क्रिया, फल, कारण ये सब हेतु हैं । 'तत्' अर्थात् यह वही है इस प्रतीतिमें परस्पर प्रेमभाव ( ऐक्यभाव ) को लिये हुए तत्त्व ही नियमसे हेतु है । भावार्थ किसी वस्तु में अथवा किसी गुण में पूर्व पर्याय कारणरूप पड़ती है और उत्तर पर्याय कार्यरूप पड़ती है । तथा उस वस्तुकी अथवा गुणकी पर्यायका पलटना क्रिया कहलाती है । यदि भेद बुद्धिसे विचार किया जाय, तत्र तो तीनों बातें जुदी १ हैं, क्रिया, भिन्न पदार्थ है, कारणरूप पर्याय भिन्न पदार्थ है, तथा कार्य- - फलरूप पर्याय भिन्न पदार्थ है। क्योंकि पूर्व पर्याय और उत्तर पर्यायका समय जुदा २ है, परन्तु क्रव्यदृष्टिसे - अभेद बुद्धिसे यदि विचार किया जाय तो द्रव्य अथवा गुण - अभिन्नरूप ही प्रतीत होते हैं । क्योंकि पर्याय वस्तु से जुदी नहीं है, अथवा सत्र पर्यायोंका समूह ही वस्तु है । इसलिये अभिन्न अवस्थामें क्रिया, कारण, फल सब एकरूप ही प्रतीत होते हैं ।
इसीका स्पष्टीकरण
अयमर्थः सदसद्वसदतदपि च विधिनिषेधरूपं स्यात् । न पुनर्निरपेक्षतया तद्वयमपि तत्त्वमुभयतया ॥ ३३२ ॥ अर्थ — तात्पर्य यह है कि सत् और असतके समान सत् और अतू भी विधि, निषेधरूप है, परन्तु निरपेक्ष दृष्टिसे वे ऐसे नहीं है, क्योंकि एक दूरेकी सापेक्षतामें दोनों रूप ही वस्तु है । भावार्थ- जिस प्रकार सत्की विवक्षा विवक्षित पदार्थ विधिरूप पड़ता है और अविवक्षित असत् - निषेधरूप पड़ता है उसी प्रकार तत् तत् विवस में भी कपसे विवक्षित
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है कि विधि, निषेधकी स्वतन्त्र एक भी नहीं है ।
पदार्थ विधिरूप और अविवक्षित पदार्थ निषेधरूप पड़ता है। इतना अपेक्षा रखता है और निषेध विधिकी अपेक्षा रखता है, सर्वथा
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